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कभी का मर चुका हूँ मैं महज साँसें ही चलती है

मेरी पथरा गयी आँखें मगर फिर भी बरसती हैं

के अक्सर खींच लाती है मुझे लहरों की ये मस्ती
मगर मँझधार में लाकर ये लहरें क्यों मचलती हैं

बहुत है दूर वो मुझसे नहीं आना कभी उसको

मगर दीदार को आँखें न जाने क्यों तरसती हैं

कहीं गुमनाम हो जाऊँ ये शहरा छोड कर मैं भी

मगर दुनियाँ तेरे जैसी तेरे जैसी ही बस्ती हैं

मेरा ये बावफा होना किसी को रास ना आया
सभी की आदतें आपस में कितनी मिल्ती जुल्ती हैं

उमेश कटारा

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 1:04am

इता दोष के कारण मतला के खारिज़ होने का खतरा है, आदरणीय. 

शहरा को अवश्य ही आप सहरा कहना चाहते होंगे. अन्यथा ये शब्द मेरे लिए नया है.

शुभ-शुभ

Comment by Santlal Karun on July 4, 2014 at 5:31pm

आदरणीय कटारा जी, आप ने बड़ी उम्दा ग़ज़ल कही है | ...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by विजय मिश्र on June 23, 2014 at 12:44pm
कसीस भरी इन पंक्तियों केलिए अनेक धन्यवाद कटाराजी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 22, 2014 at 8:37pm

आदरणीय उमेश भाई , गज़ल बहुत लाजवाब कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ एक दो ज़गह टाइपिंग की गलती हो गई है , सुधार लीजियेगा ।

1- मझे लहरों की ये मस्ती  ---- मुझे कर लीजियेगा  2- सभी का आदतें   -- को -- सभी की आदतें  , कर लीजियेगा ॥सादर !!

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