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तोड़ धैर्य के बाँध को, उफन गया सैलाब।

कुछ से उम्मीदें बढ़ीं, कुछ के टूटे ख़्वाब।।

 

लाँघी सीमा क्रोध की, ऐसा क्या आक्रोश।

भला बुरा सोचा नहीं, अंधा सारा जोश।।

 

श्रम भी काम न आ सका, काम न आया अर्थ।

बुरे कर्म की कालिमा, यत्न हुआ सब व्यर्थ।।

 

राग द्वेष का हो मुखर, जिनके मुख से राग।

शक्ति उन्हें मिल ही गई, जो-जो उगलें आग।।

 

ज्यों बिल्ली के भाग से, छींका फूटा आज।

दण्ड एक को यों मिला, दूजा पाये राज।।

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 21, 2014 at 9:29pm

आदरणीया मीना जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 21, 2014 at 9:28pm

आदरणीय डॉ गोपाल सर रचना की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ

Comment by Sushil Sarna on May 21, 2014 at 5:42pm

वाह आदरणीय शिज्जु शकूर जी वाह बहुत ही सुंदर और शिल्प में कसे हुए सार्थक दोहे  … इस हेतु आपको हार्दिक बधाई 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on May 21, 2014 at 12:58pm

बहुत शानदार दोहे हैं शिज्जु भाई जी !
बधाई !!

Comment by Meena Pathak on May 21, 2014 at 12:08pm

क्या बात है ... बहुत सुन्दर दोहे ,,, बधाई आ० शिज्जू जी | सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2014 at 11:56am

शिज्जू जी

क्या बात है ?

इतना सुन्दर शिल्प  i भावपूर्ण भी i मस्त i

बधाई हो i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 21, 2014 at 11:25am

है मेरी ये कामना, हो सपने साकार।
सच्चाई पर सोच के, करना आप विचार।।

आदरणीय अरुण सर रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 21, 2014 at 11:24am

आदरणीय श्यामनारायण सर आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 21, 2014 at 11:16am

आदरणीय शिज्जू शकूर जी, 

सटीक दोहावली के लिए बधाइयाँ...................

नई-नई नौटंकियाँ, नाटक नित्य निहार 

होने वाले मित्रवर , सब सपने साकार ||

Comment by Shyam Narain Verma on May 21, 2014 at 11:09am
यथार्थ भाव रचित सुन्दर और सामयिक दोहे | हार्दिक बधाई आदरणीय ...................

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