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तेलंगाना पे भिड़े, अपनी मुट्ठी तान।

अपने भारत देश की, लगी दाँव पे आन।।

 

कोई तोड़े काँच को, पत्र लिया जो छीन।

आगे पीछे भैंस के, बजा रहे हैं बीन।।

 

मिर्चें लेकर हाथ में, करे आँख में वार।

मानवता इस हाल पे, अश्रु बहाये चार।।

 

हिस्सा जाता देख कर, हुये क्रोध से लाल।

बरसीं गंदी गालियाँ, ये संसद का हाल।।

 

चढ़ा करेला नीम पर, अपनी छाती ठोक।

शक्ति संग सत्ता मिली, रोक सके तो रोक।।

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2014 at 10:10pm

आदरणीय बैद्यनाथ भाई आपका हार्दिक आभार, सनातनी छंद दोहा ग़ज़ल से बहुत ज्यादा अलग नही है इसमें भी गागर मे सागर वाली बात है ग़ज़ल की ही तरह :-))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2014 at 10:07pm

आदरणीय गिरिराज सर आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2014 at 10:07pm

आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार अब बातें काफी कुछ साफ हो गई है

Comment by Saarthi Baidyanath on April 4, 2014 at 1:50pm

छंद शास्त्र की मेरी जानकारी कम है ! ..आपकी रचना की भावनात्मक पकड़ बेजोड़ है !...दोहे ..बहुत कुछ कह रहे हैं ! शिज्जू साहब , शायद आपकी इस पहल से ..मैं भी दोहे लिखने में रूचि लेने लगूं ...! बहरहाल ..दिली मुबारकबाद स्वीकार करें ! नमन :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 4, 2014 at 1:21pm

भाई शिज्जू, आपने मुझे सम्बोधित कर गौरवान्वित किया है. इसके लिए हार्दिक धन्यवाद. 

कोई तोड़े काँच को, पत्र लिया जो छीन।

आगे पीछे भैंस के, बजा रहे हैं बीन।।

 

हिस्सा जाता देख कर, हुये क्रोध से लाल।

बरसीं गंदी गालियाँ, ये संसद का हाल।।

 

चढ़ा करेला नीम पर, अपनी छाती ठोक।

शक्ति संग सत्ता मिली, रोक सके तो रोक।।

उपरोक्त दोहों की तार्किकता और कथन पर आपको हृदय से बधाई.

अन्य दोहों केशिल्प परकुछ नहीं कहना. बस तार्किकता या कथन पर ही चर्चा हो सकती.

यह अवस्था किसी सीखते रचनाकार के लिए ऐडवांस स्टेज है. 

जैसे, पहले दोहे में तेलंगाना की बात पर भारत की आन का ही दाँव पर लग जाना कुछ विशिष्ट नहीं लगा. भारत की आन यदि दाँव पर लग रही है तो कारण अत्यंत क्लिष्ट होना चाहिये. आप समझ रहे होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ.

तीसरे दोहे में देखिये. वार आँख में होने की जगह वार आँख पर हो तो बात अधिक सुगढ़ होगी.  फिर, संसद के अंदर जो कुछ अतुकान्त होता दीख रहा हो तो मानवता से अधिक राजनीति द्वारा चार आँसू बहाना अधिक तार्किक प्रतीत होता है. मात्रा में भी परिवर्तन नहीं होता.

विश्वास है, मैं अपनी बातें प्रस्तुत कर पाया. वैसे यह मेरा सोचना मात्र है. हो सकता है आप इससे सहमत न हों.

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2014 at 10:03am

आदरणीय सौरभ सर कुछ संशोधन किया है आपको मार्गदर्शन की अपेक्षा है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 5:55pm
आदरणीय शिज्जू भाई , राजनीति की वर्तमान दशा को आपने दोहों की माध्यम से बहुत सुन्दरता से बयान किया है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 5:55pm
आदरणीय शिज्जू भाई , राजनीति की वर्तमान दशा को आपने दोहों की माध्यम से बहुत सुन्दरता से बयान किया है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 26, 2014 at 5:40pm

हाँ, शिज्जू भाई, पर का पे ही नहीं बल्कि ऐसे कई शब्द हैं जो नज़्मों या अन्य विधाओं में तो आम-फहम हैं, लेकिन छंदों की प्रवृति में वे नहीं समरस नहीं हो पाते. उनका मूल रूप ही मान्य हुआ करता है. जैसे, क्यों का क्यूँ, यों का यूँ आदि अच्छे नहीं लगते.
लेकिन ये सारा कुछ छंद की प्रकृति पर भी निर्भर करता है कि छंद (यहाँ दोहा पढ़ें) की भाषा और उसका वातावरण क्या है.
शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 26, 2014 at 5:22pm

आपकी विस्तृत टिप्पणियों के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया मुझे बेसब्री से आपका इंतज़ार था।  कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर मन बहुत संशय रहता है। आपके मार्ग दर्शन के लिये आपका पुनः आभार।

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