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दोहे-१३(प्रेम पियूष)

उनके आते ही यहाँ,खिले ह्रदय में फूल!

कोयल भी गानें लगी,पवन हुआ अनुकूल!!

मंद मंद चलने लगी,देखो प्रेम बयार!
कानों में आ कह रही,कर लो थोड़ा प्यार!!


अधरों के पट खोलकर,की है ऐसी बात !! 

शब्द शब्द में बासुँरी,फिर मधुमय बरसात!!


कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!

शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!


फिर से मै घायल हुआ,पता नहीं वह कौन!

मुझे व्यथित करके सदा,हो जाती है मौन!!


बजा बाँसुरी प्रेम की,डालो मुझमे प्राण!

पुनः मुझे जीवित करो,कब से हूँ म्रियमाण!!

***********************************************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक/अप्रकाशित

Views: 707

Comment

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Comment by ram shiromani pathak on February 11, 2014 at 8:48pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण जी .........   सादर 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 11, 2014 at 7:04pm

अन्तरंग दोहे रचने हेतु बधाई 

Comment by ram shiromani pathak on February 11, 2014 at 10:16am


क्या दोहे लिखे है आपने आहा। ..

मधुशाला से भी अधिक, अधरों में उन्माद
हद से ज्यादा है नशा, हद से ज्यादा स्वाद ////वाह वाह


आपकी समीक्षात्मक टिपण्णी व् अनुमोदन पाकर बहुत प्रसन्नता हुई, बहुत बहुत आभार आदरणीय भाई अरुण शर्मा जी //// सादर

Comment by ram shiromani pathak on February 11, 2014 at 10:09am

बहुत बहुत आभार आदरणीय भाई रमेश जी। 

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 9:44pm

सुंदर दोहावली पर कोटिश बधाई

कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!

शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!---------------------------- शायद ?  अच्छा प्रयोग

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 10, 2014 at 5:01pm

उनके आते ही यहाँ,खिले ह्रदय में फूल!

कोयल भी गानें लगी,पवन हुआ अनुकूल!!

उनका दर्शन हो हुआ, दर्द गया सब भूल  

पढ़ ली भाषा प्रेम की, मैं गए बिना स्कूल

मंद मंद चलने लगी,देखो प्रेम बयार!
कानों में आ कह रही,कर लो थोड़ा प्यार!!

सोच समझ कर कीजिए, प्रेम बड़ा बहुमूल

मिलते हैं यदि फूल तो, चुभते भी हैं शूल


अधरों के पट खोलकर,की है ऐसी बात !! 

शब्द शब्द में बासुँरी,फिर मधुमय बरसात!!

मधुशाला से भी अधिक, अधरों में उन्माद

हद से ज्यादा है नशा, हद से ज्यादा स्वाद  


कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!

शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!

मुख से जब ना कह सका, प्रिये नहीं तुम आम

तबसे ही मैं कवि बना, हाँथ लेखनी थाम


फिर से मै घायल हुआ,पता नहीं वह कौन!

मुझे व्यथित करके सदा,हो जाती है मौन!!

होगी कोई निर्दयी, या होगी पाषाण

बचकर रहना मित्रवर, छीन न ले वो प्राण


बजा बाँसुरी प्रेम की, डालो मुझमे प्राण!

पुनः मुझे जीवित करो, कब से हूँ म्रियमाण!!

बजा बाँसुरी प्रेम की, दिल जायेगी लूट

स्वप्न सलोना हे अनुज, कहीं न जाये टूट

राम भाई सभी दोहे बहुत ही सुन्दर रचे हैं आपने मेरी ओर से ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.

कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!  .. इस दोहे के प्रथम में प्रवाह की कमी है देख लीजियेगा.

शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!

Comment by ram shiromani pathak on February 10, 2014 at 4:58pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय अखिलेश भाई। ……… सादर

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on February 10, 2014 at 4:39pm

कह न सका जब मैं उन्हें,तुम हो मन के मीत!

शायद तब से कवि बना,लिख लिख गाता गीत!!

बहुत सुंदर राम भाई हार्दिक बधाई सभी दोहों के लिए । 

Comment by ram shiromani pathak on February 10, 2014 at 4:25pm

अमूल्य सुझाव के लिए हार्दिक आभार आदरणीया कुन्ती दीदी जी.....  सादर 

Comment by coontee mukerji on February 10, 2014 at 3:35pm

प्यारे अनुज उमर के हिसाब से दोहे ठीक है......जीवन सागर में तैरने के लिये डुबकी लगाना अति आवश्यक है अन्यथा कटहल पेड़ ही  पर पक जाऐंगे.....अनेक शुभकामनाएँ.

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