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शुभारंभ है नए साल का//नवगीत//कल्पना रामानी

फिर से नई कोपलें फूटीं,

खिला  गाँव का बूढ़ा  बरगद।

शुभारंभ है नए साल का,

सोच, सोच है मन में गदगद।

 

आज सामने, घर की मलिका

को उसने मुस्काते देखा।

बंद खिड़कियाँ खुलीं अचानक,

चुग्गा पाकर पाखी चहका।

 

खिसियाकर चुपचाप हो गया,

कोहरा जाने कहाँ नदारद।

  

खबर सुनी है,फिर अपनों के

उस  देहरी पर कदम पड़ेंगे।

नन्हीं सी मुस्कानों के भी,

कोने कोने बोल घुलेंगे।

 

स्वागत करने डटे हुए हैं,

धूल झाड़कर चौकी मसनद।

 

लहकेगी तुलसी चौरे पर,

चौबारे चौपाल जमेगी।

नरम हाथ की गरम रोटियाँ,

बहुरानी सबको परसेगी।

 

पिघल-पिघल कर बह निकलेगा

दो जोड़ी नयनों से पारद।

बरगद के मन द्वंद्व छिड़ा है,

कैसे हल हो यह समीकरण।

रिश्तों का हर नए साल में,

हो जाता है बस नवीकरण।

 

अपने चाहे दुनिया छोड़ें,

नहीं छूटता पर ऊँचा पद।

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामाँनी

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2013 at 8:02pm

नए साल पर कई रचनाये पटल  पर है पर आपकी कविता का वैशिष्ट्य सबसे जुदा है i मुबारक हो महनीया i

कृपया ध्यान दे...

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