ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२
इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,
गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |
पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,
यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |
औघड़ी फांक ले मसानों की ,
देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |
बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,
खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |
ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,
ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |
माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,
ये जमीं क्या है आसमाँ भी क्या |
ख़ूब चर्चा में है वेलेन्टाइन ,
इश्क़ तेरी सजी दुकां भी क्या |
उनकी नज़रें हुईं जिगर के पार ,
तीर को चाहिए कमां भी क्या |
मुझको शहरे ग़ज़ल घुमा लायी ,
ख़ूब उर्दू ज़ुबां ज़ुबां भी क्या |
यूं लगे है ख़ुदा बुलाता है ,
इन मीनारों से है अजां भी क्या |
- मौलिक और अप्रकशित.
- अभिनव अरुण
{16122913}
Comment
शुक्रिया श्री जितेन्द्र जी , स्नेह मिलता रहे !
आ. डॉ साहिबा आभारी हूँ सादर नमन आपका !
आपकी सराहना से लेखन को बल मिला है आदरणीय श्री राजेश मृदु जी
बहुत आभार ग़ज़ल के अनुमोदन के लिए श्री तपन जी
जय हो आदरणीय, आपकी बारंबार जय हो, बहुत ही बढि़या गज़ल कही है, सादर
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आ० अभिनव अरुण जी
हार्दिक बधाई
बहुत सुंदर गजल , दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय अभिनव अरुण जी
खूबसूरत ग़ज़ल कही है
ढेरो दाद
आदरणीय अभिनव अरुणजी बेहतरीन गज़ल है दिली दाद कुबूल करें
इन अशआर के लिये विशेष दाद कुबूल करें
//माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,
ये जमीं क्या है आसमाँ भी क्या |
बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,
खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |//
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