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ग़ज़ल - माँ जो होती है तो घर लगता है ! (अभिनव अरुण)

ग़ज़ल
फाइलातुन फइलातुन फैलुन \ फइलुन
२१२२ ११२२ २२ \ ११२

वर्ना अन्जान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है |

दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है |

है इधर रंग बदलती दुनिया,
मैं चला जाऊं उधर लगता है |

जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |

इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |

इन चटख फूलों में मकरंद नहीं ,
ये दवाओं का असर लगता है |

इन घरोंदों में ये ख़ामोशी क्यों ,
कागज़ी है ये शजर लगता है |

खाप पंचायतें हैं घर घर में
इश्क़ के नाम से डर लगता है |

जाने किस बात पे खंज़र निकले
बात करते हुए डर लगता है |

* सर्वथा मौलिक \ अप्रकाशित

- ०२०१२०१४ (C)&(P) - अbhinav अrun

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Comment by Abhinav Arun on January 10, 2014 at 11:44am

आदरणीया डॉ साहिबा बहुत आभार और नव वर्ष की मंगल कमनाएँ ..सादर अभिवादन सहित !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 10, 2014 at 9:36am

बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आ० अरुण जी 

दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है |.................वाह! क्या कहने 

है इधर रंग बदलती दुनिया,
मैं चला जाऊं उधर लगता है |........................बहुत खूब 

बहुत बहुत बधाई

Comment by Abhinav Arun on January 9, 2014 at 9:02am

सादर प्रणाम अग्रज श्री इस वर्ष विशेष कृपा - स्नेह और आशीष की वर्षा करें '' सच का परचम '' लहराए इस हेतु प्रयत्न आपको ही करना है ...यकीन है ..और आप है तो फिर फतह होगी ...अल हम्दुलिल्लाह !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 8, 2014 at 11:52pm

भाई अरुण अभिनवजी..
शेर दर शेर कमाल करते गये हैं. वाह !
दूर से सौ का सिफ़र लगना.. वाकई खूब कहा आपने. मज़ा आ गया.

दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है.. इस शेर के लिए बहुत-बहुत बधाई.

Comment by Abhinav Arun on January 8, 2014 at 5:37pm

आदरणीया प्रियंका जी बहुत धन्यवाद आपने गज़ल को समय दिया आभारी हूँ !!

Comment by Abhinav Arun on January 8, 2014 at 5:37pm

श्रद्धेय श्री संपादक महोदय ..आपका स्नेह और आशीर्वाद ...दुआ समान है ..ग़ज़ल और गज़लकार आभारी हैं ...सादर प्रणाम निवेदित है !! मार्गदर्शन की सदा आकांक्षा रहती है आपसे आभार !!

Comment by Priyanka singh on January 7, 2014 at 4:34pm
बहुत खूबसूरत अशआर हैं,सर.....बहुत बहुत बधाई आपको....

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 7, 2014 at 4:22pm

//इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |//

लाजवाब !! हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर। बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आ० भाई अरुण जी.

Comment by Abhinav Arun on January 7, 2014 at 7:45am

बहुत शुक्रिया और आभार आदरणीय श्री शिज्जू जी आपकी टिप्पणी मेरी रचना प्रक्रिया को मजबूती देगी .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 6, 2014 at 8:08pm

//जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |

इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |// वाह बेहतरीन अशआर हैं, सौ और सिफर वाली सोच सबसे अलग है

इस खूबसूरत ग़ज़लके लिये आपको बहुत बहुत बधाई

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