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गर्भाधान (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“पापा ! टीचर ने कहा है कि फीस जमा करवा दो, नहीं तो इस बार नाम अवश्य काट दिया जाएगा।"
“अजी सुनते हो ! बनिया आज फिर पैसे मांगने आया था।”
“अरे बेटा ! कई दिन हो गए दवाई खत्म हुए, अब तो दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, आज तो दवाई ला दो।”

ये सभी आवाज़ें उसके मस्तिष्क पर हथोड़े की भाँति चोट कर रही थीँ।
मगर उसके दिल में एक नई कविता का खाका जन्म ले रहा था।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by annapurna bajpai on December 17, 2013 at 10:31pm

वाह क्या बात है ? सुंदर और गूढ अर्थ से परिपूर्ण आपकी लघु कथा , बधाई एवं शुभकामनायें आपको । 

Comment by Ravi Prabhakar on December 17, 2013 at 4:10pm

आदरणीय कल्पना रामानी जी,
नमस्कार। लघुकथा पर आपकी उपस्थिती प्रतिक्रिया व आशीर्वाद पाकर बहुत उत्साहित हूं। मंच को आप सरीखे साहित्यकारो की छत्रछाया सदैव मेरे जैसे नौसीखिए को भी कलम चलाने पर उत्साहित करती है। आपका आशीर्वाद भविष्य में भी बना रहेगा इसी आस में ....... धन्यवाद ।

Comment by कल्पना रामानी on December 16, 2013 at 11:56pm

एक कविमन के अंतर्द्वंद्व  को कम शब्दों में खूबसूरती से अंकित किया है आपने, बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय रविशंकर जी

Comment by Ravi Prabhakar on December 16, 2013 at 5:35pm

आदरणीय डाॅ. प्राची जी,
सादर । आपने मेरी लघुकथा पढ़ी और इसके मर्म को पहचाना, आपका धन्यवाद। आपसे बधाई प्राप्त करना मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है क्योंकि मैं आपकी कलम की धार बहुत बड़ा “फैन” हूं । धन्यवाद ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 13, 2013 at 9:19am

ऐसी ही होती है एक कवि हृदय की उधेड़बुन.. नियति के थपेड़े उसके अन्दर के लेखक को नित उर्वरा बनाते रहते हैं.

इस सुन्दर सुगठित लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आ० रवि प्रभाकर जी.

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 3:05pm

ओपन बुक्स के सभी सहृदय गुणीजन पाठकों का मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। इस मंच का मैं बहुत शुक्रगुजार हूं, जिसने मुझे फिर से लिखने का हौसला प्रदान किया। मैने अपनी लघुकथा पंजाबी में वर्ष 1989 में लिखी थी जो ‘मिन्नी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी। उसके बाद मेरी कई लघुकथाएं विभिन्न पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुई। इसके बाद कुछ कारणों से मेरा लिखना छूट गया। मेरे परम आदरणीय, गुरू समान, बड़े भाई श्री योगराज प्रभाकर जी की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से मैने 2011 फिर लिखना शुरू किया। और उन्ही के मार्गदर्शन से ही मैं ओपन बुक्स से जुड़ा। इस मंच पर तकरीबन दो साल से प्रकाशित रचनाएं पढ़ रहा हूं। इतने ज्ञानी व गुणीवानों के सामने लिखने का हौसला नहीं कर पा रहा था परन्तु भाई योगराज जी, गणेश बागी जी व सौरभ जी की प्रेरणा से लिखने का दुस्साहस किया। मैं अपने दिल से सभी का धन्यवाद करता हूं जिनकी बदौलत फिर से लिखना शुरू हुआ। धन्यवाद ओपन बुक्स आॅनलाइन।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:51pm

आदरणीय कुन्ती जी,
सादर । आपका शुभआशीर्वाद पाकर धन्य हूं। ‘एक और एकलव्य’ के बाद इस लघुकथा हेतु आपकी टिप्पणी का इंतजार था। शायद अपने प्रयास में सफल रहा हूं। धन्यवाद ।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:48pm

श्रद्धेय सौरभ भाई
आपकी सृजनात्मक टिप्पणी तो आॅक्सीजन का काम करती है, और यह आपकी ही हौसला अफजाई है कि लिखने का प्रयास कर रहा हूँ, धन्यवाद ।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:46pm

आदरणीय नीलेश भाई,
कलम के किसी भी मजदूर को इससे अधिक कुछ और चाहिए भी नहीं।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:45pm

आदरणीय डाॅ. आशुतोष जी,
आप जैसे महानुभावो की सार्थक टिप्पणीया सदैव हौसला बढ़ाती है और भविष्य में और अधिक प्रयास करने का उत्साह देती है। धन्यवाद ।

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