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अमर पुष्प

अमर पुष्प
कुछ बातें ऐसी थीं
कुछ ठहरी हुई कुछ चंचल
कुछ कही हुई
कुछ अनकही.

कुछ सपने
पलकों में थे बिखरे
ख्यालों की लम्बी दरिया में
कुछ बातें थी उपली.

मैं तुम्हें देखती थी
मुस्काते नयनों से
तुम भी देखते थे
पर रहते थे मौन.

तुम्हारे आस-पास
बन तितली उड़ती रहती
तुम्हारे हृदय का पट न खुला
मैं पहेली बूझ न सकी.

तुम्हारी चुप्पी ने
मेरे कितने सवालों को उलझाया
एक डोर सुलझा न सकी
मैं और उलझती चली गयी.

दिन रात मन में
कितने प्रश्न उभरते
और मेरी कितनी ही शामें
उथले जल में डूबती उतराती रहीं.

अमर लता सी उतर रही थी
मूक प्रेम मेरे कानन में
ज़िंदगी के सुनहरे पुष्प
खिलने लगे सूने आंगन में.

मन की व्यग्रता
प्रति पल थी बढ़ती
तब मैंने देखा तुमको
लहरों को गिनते हुए अविरल -
मैं भी तो
गिन रही थी कुछ पल
अपनी इन उंगलियों में सजल.

रात के सन्नाटे में
एक अमर पुष्प कब खिला
तुम जान न सके
दिन के उजाले में
कुछ साये थे अनछुए
कुछ रहस्य हो रहे थे उज्ज्वल.

मन के प्राचीर में
प्रेमदूत ने दी जब दस्तक
तुम्हारे हृदय में
एक हलचल सा मचा
और उतर आया चाँद
तुम्हारी सफेद हथेली पर.

समय ने बदला करवट
वसंत के संग होने लगी
धूप-छाँव की अठखेलियाँ
जीवन संगीत लहराने लगा -
विटप से लिपट गयी अमरलता
और
खिल उठा जीवन का ‘अमर पुष्प’.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)

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Comment by coontee mukerji on December 12, 2013 at 7:06pm

आपकी बातें ध्यान देने योग्य है सौरभ जी.इसपर तुरन्त विचार करूँगी.सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 7, 2013 at 4:47pm

विलम्ब से आपकी रचना पर आ पारहा हूँ इसका खेद है.

अव्यक्त के प्रति आपकी भावाभिव्यक्ति की शैली सुगढ़ है, आदरणीया कुन्तीजी.

अमर पुष्प का प्रतीक भी ध्यानाकर्षित करता है. हाँ, अमरलता  का जो स्वरूप कविता में उद्धृत है वह अपनी जगह, अमरलता या अमरबेल एक रुढ़िगत संज्ञा होने के कारण भ्रम भी पैदा करता है. दूसरी बार पढ़ने पर ही कथ्य स्पष्ट हो पाता है.  इससे बचना आवश्यक था. इस भ्रम के स्पष्ट होने पर कविता मनोभावों को संप्रेषित करने में पूरी सक्षम लगी.  बधाई !

और, दरिया की संज्ञा पुल्लिंग है. अतः, लम्बी दरिया का प्रयोग उचित नहीं.

शुभेच्छाएँ.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on December 6, 2013 at 10:34pm

मन के प्राचीर में
प्रेमदूत ने दी जब दस्तक
तुम्हारे हृदय में
एक हलचल सा मचा
और उतर आया चाँद 
तुम्हारी सफेद हथेली पर.

आदरणीया कुंती जी बहुत सुन्दर भाव .. प्रेम की ये बेल यूं ही चढ़ती रहे बढ़ती रहे
जीवन का ये अमर पुष्प खिलता रहे तो क्या कहने

आभार
भ्रमर ५

Comment by coontee mukerji on December 2, 2013 at 4:55pm

एक रचना तभी सार्थक होती है जब पाठक उसे दिल से महसूस करे.वेदिका और क्या कहूँ.

बहुत बहुत आभार

Comment by coontee mukerji on December 2, 2013 at 4:51pm

सावित्री जी आपने इस रचना को पढ़ा और सब से बड़ी बात(समय ने बदली करवट) जाने कैसे यह त्रुटि रह गयी थी. इतनी आत्मियता से पढ़ने के लिये बहुत धन्यवाद.

Comment by वेदिका on December 2, 2013 at 12:55pm

हृदय के एक कोर से जैसे एक उलझन और सुलझन  भरी इस रचना का उदय होना मानो कि एक महीन सी जलधारा का उद्गम होना, सतत प्रवाहित रहते हुये, धारा का और घना होते जाना और अंत मे एक मुकम्मल दिशा बनाते हुये सागर मे विलीन होकर आत्मसमर्पण कर देना! प्रेम की प्राप्ति होना, अद्भुत और सुखद अंत, जो वस्तुत: अंत नही प्रेम कि शुरुआत है! 

बहुत बहुत बधाई इस अंतर्ग्राही रचना के उद्भव के लिए आ० कुंती दीदी!

Comment by बृजेश नीरज on December 2, 2013 at 11:49am

गज़ब! बहुत ही सुन्दर! आपकी अभिव्यक्ति इतनी सरल और सहज है कि बरबस मन में उतरती चली गयी!

आपको बहुत-बहुत बधाई!

सादर!

Comment by राजेश 'मृदु' on December 2, 2013 at 11:34am

मेरी जिज्ञासा को शांत करने के लिए आपका आभारी हूं, सादर

Comment by Savitri Rathore on December 1, 2013 at 10:19pm

अत्यंत सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना कुंती जी ! प्रेम -निवेदन से पूर्व की उलझन,फिर प्रेम निवेदन और तत्पश्चात प्रेम की प्राप्ति।सच में मर्मस्पर्शी रचना,किन्तु कहीं-कहीं शब्दों में लिंग सम्बन्धी त्रुटियाँ भी दृष्टिगोचर हुई,यथा-'समय ने बदला करवट'-यहाँ 'समय ने बदली करवट ' होना चाहिए था,आदि.… कृपया ध्यान दें और इसे अन्यथा न लें।

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 1, 2013 at 2:10pm

आदरणीया बहुत ही गहरे भाव एवं हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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