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बह्र- "रमल मुसम्मन महजूफ"
.
मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते
ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते
इक समंदर हम नया दिल में बसा देते
तुम अगर आँसू हमें पीना सिखा देते
आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते
रूह प्यासी क्यूँ ये सहरा में खड़ी होती
प्यार का चश्मा अगर दिल में बहा देते
दिल मुहब्बत में धड़कता ये हमारा भी
तुम अगर उल्फत भरे नगमे सुना देते
इक फ़सुर्दा फूल चाहत में हुए तेरी
फिर महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
काँपती चौखट न दीवारें हिला करती
प्यार के आधार पर जो घर टिका देते
तल्खियां सब “राज” दिल में दफ्न कर जाती
ये जमीं तो क्या सितारे भी दुआ देते
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आजिज़ी=उकताहट
फ़सुर्दा=मुरझाये हुए
मुन्तज़िर=प्रतीक्षारत
तल्खियां =कडवाहट
तीरगी =अँधेरा (गम )
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
(संशोधित)
Comment
नीरज कुमार नीर जी आपको ग़ज़ल पसंद आई हृदय से आभार आपका
अभिनव अरुण जी आपकी प्रतिक्रिया आश्वस्त करती है आपने सराहना की मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभारी हूँ
आदरणीय विजय मिश्र जी आपकी सराहना से मेरी लेखनी को नव ऊर्जा प्राप्त हुई ,दिल से आभारी हूँ .
डॉ अनुराग सैनी जी तहे दिल से आभार आपका
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी ग़ज़ल पर आपकी बधाई सर आँखों पर मेरा लिखना सार्थक हुआ सादर.
वाह वाह आदरणीया बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने सभी के सभी अशआर शानदार बन पड़े हैं ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.
इक फ़सुर्दा फूल चाहत में हुए तेरी
फिर महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
वाह वा बहुत खूबसूरत अशआर हैं ढेरो बधाई
आ. राजेश कुमारीजी ठीक ही कहा आपने - सारी समस्या और शिकायत इसलिए है कि हम पत्थर की तरह बेज़ान नहीं हैं , सुंदर भाव लिए गज़ल की हार्दिक बधाई॥
आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते
दिल मुहब्बत में धड़कता ये हमारा भी
तुम अगर उल्फत भरे नगमे सुना देते
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
बेशक , कमाल की ग़ज़ल हुई है मोहतरमा ....दिली दाद हाजिर है ...!
हर अश आर बेहतरीन ..
इक समंदर हम नया दिल में बसा देते
तुम अगर आँसू हमें पीना सिखा देते
ये विशेष रूप से अच्छी लगी ...
बहुत बढियां
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