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भोले मन की भोली पतियाँ

भोले मन की भोली  पतियाँ

लिख लिख बीतीं हाये रतियाँ

अनदेखे उस प्रेम पृष्ठ को

लगता है तुम नहीं पढ़ोगे

सच लगता है!

बिन सोयीं हैं जितनीं रातें

बिन बोलीं उतनी ही बातें

अगर सुनाऊँ तो लगता है

तुम मेरा परिहास करोगे

सच लगता है!

रहा विरह का समय सुलगता

पात हिया का रहा झुलसता

तन के तुम अति कोमल हो प्रिय

नहीं वेदना सह पाओगे

सच लगता है!

संशोधित

मौलिक व अप्रकाशित

९॰११॰२००० - पुरानी डायरी से

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 19, 2013 at 9:39pm

पलायन वाद कभी स्वीकार नही 

सादर / सस्नेह 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 13, 2013 at 5:33pm

मेरे अनन्य भाई बृजेशजी,  इस मंच ही नहीं इससे जुड़ी किसी ऐक्टिविटी के दौरान आपकी मंशा, आपके प्रश्नों और आपकी तथ्यात्मकता पर किसी ने कभी आपत्ति ज़ाहिर नहीं की है. उल्टे हमें आपके कार्य सम्पादन और आपकी रचनात्मकता पर गर्व ही रहा है. 

मैंने इस प्रस्तुति के सापेक्ष जो कुछ आपके नाम निवेदित किया है उसका कारण मात्र यही है कि हम यह अवश्य जानें कि एक ही तथ्य दो आयामों से कैसे दो दीख सकते हैं.

मुझे आपने टेलिफोन पर बातचीत के क्रम में अवश्य-अवश्य बताया था कि आप आजकल अस्पताल के कारण व्यस्त हैं. लेकिन इसके बावज़ूद देखिये, तथ्य इन सब बातों से कितने निर्पेक्ष होते हैं और तो और कई-कई विन्दु कितना बहक जाते हैं. इन विन्दुओं को साधना एक संवेदनशील और धैर्यवान रचनाधर्मी का ही काम है. यही वह संलग्नता है जो रचनाकर्म के आवश्यक विन्दु उपलब्ध कराती है.
मुझे स्पष्टतः आपसे कभी न शिकायत थी, न है. और विश्वास ऐसा है कि बिना पलक झपकाये कह सकता हूँ कि न कभी होगी. मुझे जो कहना था वह मैंने आपको हर तरह से कह दिया है. बस अब हम पूरी संलग्नता से आगे बढ़ें और विधाओं पर सार्थक चर्चा करें.
यही आवश्यक भी है.

चलिये, आपको एक बढिया बात बताऊँ. कल मेरी आदरणीय नचिकेताजी से विधा-विधान पर बहुत लम्बी बातचीत हुई है. आपको सुन कर बहुत अच्छा लगेगा, कि वे विधाओं पर मेरे मंतव्य को अनुमोदित कर रहे थे.
इस पर इत्मिनान से बातें करूँगा.
शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on December 13, 2013 at 4:50pm

समस्त माननीय सदस्य,

ये मंच मेरा भी परिवार है! इसे छोड़कर जाने का मेरा कभी आग्रह नहीं रहा!

इस परिचर्चा ने गलत रूप ले लिया. इसका मुझे भी खेद है. इसमें मेरी भी त्रुटी हो सकती है, लेकिन मेरी मंशा गलत नहीं थी. भावावेश में शायद कुछ गलत भी कह गया होऊं, उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ!

मुझसे वरिष्ठ क्षमा माँगें, ये मैं कभी नहीं चाहता! ये आवश्यक भी नहीं! ये भारतीय संस्कृति भी नहीं!

आदरणीय सौरभ जी, आजकल दो दिक्कतों का मुझे सामना करना पड़ रहा है! एक तो मेरे एक रिश्तेदार गंभीर रूप से बीमार हैं, वेंटीलेटर पर हैं, कार्यालय के बाद काफी समय अस्पताल में बीत जाता है! बाकी कुछ समय निकालता भी हूँ तो आजकल लाइट फ्लक्चुएशन के कारण कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हूँ! इसी कारण उस परिचर्चा में तत्समय भी उपस्थित नहीं हो सका और आपसे टेलीफोन पर हुई वार्ता के बाद भी समय नहीं दे सका! इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ! आपसे जो भी वार्ता हुई, उसके बिन्दुओं का भविष्य में ख्याल रखूँगा, ये आश्वासन अवश्य दे सकता हूँ! आपने अपनी इस टिप्पणी में जो भी निर्देश दिए हैं उनका भी भविष्य में मेरे द्वारा निश्चित रूप से ध्यान रखा जाएगा! मुझे काफी कुछ सीखने को मिला!

भविष्य में ऐसी स्थिति मेरे कारण न उत्पन्न हो, ऐसा मेरा प्रयास अवश्य होगा!

आप सबको जो भी कष्ट हुआ उसके लिए एक बार फिर सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ!

सादर! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 13, 2013 at 12:24pm

भाई अनन्तजी, किसी की पंक्तियों से अन्यथा अर्थ निकालने की कवायद से हम बचें. इसके लिए किसी प्रस्तुति या टिप्पणी को कायदे से पढ़ना आवश्यक है. यह आदत आप जितनी जल्दी डेवलप करें उतना ही अच्छा होगा. आपका, हमारा, मंचका सबका भला होगा.  भाई बृजेशजी कभी मंच-वंच छोड़ने की बातें नहीं करते.

कुछ तथ्यों पर मैं इन्हीं शब्दों में निवेदित करना उचित समझता हूँ. ताकि तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हो कर पटल पर आयें. आप मेरे अनुज हैं, मेरे प्रिय है. सर्वोपरि, मुझे जानते हैं. तो मेरे कहे का मतलब अवश्य समझेंगे इसका पूर्ण विश्वास है.

साहित्यिक संवेदनशीलता छिछली भावुकता के साथ न तौली जाये. जैसा कि अक्सर हो जाता है. या, हो रहा है.

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 13, 2013 at 12:19pm

१. किसी तथ्य को प्रासंगिक रूप से विन्दुवत उठाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे समयानुसार अनुभवों से जाना जाता है. एक रचना पर रचना सम्बन्धी टिप्पणियाँ उस रचना की अर्थवान अपेक्षा होती है. उससे इतर कोई विन्दु या तथ्य या अभिव्यक्ति या समीक्षात्मक प्रक्रिया उस रचनाकर्म की हेठी हुआ करती है. चाहे रचना का स्तर कुछ भी क्यों न हो. हाँ, कोई विन्दु उस रचना, रचनाकर्म और रचनाकार के लिए सकारात्मक कोण प्रस्तुत करे तो उसका स्वागत होना चाहिये.

अपने उपरोक्त कथ्य के समर्थन में मैं अपनी ही एक विगत वर्ष की एक रचना का उदाहरण दूँगा जो कि विधा से कुण्डलिया छंद थी. एक सम्माननीय सदस्य द्वारा कुछ विन्दु उठाये गये और और उसपर यथासम्भव चर्चा हो गयी. बात आयी-गयी हो गयी थी. लेकिन एक ऐसे सदस्य, जो अचानक उसी रचना मात्र के लिए सक्रिय हुए और मात्र उसी रचना तक सक्रिय रहे, ने ऐसा बवाल खड़ा किया जो उस रचना में कोई अन्य सकारात्मक आयाम क्या जोड़ता, पूरी रचनाप्रक्रिया पर ही प्रश्न खड़ा कर गया. मेरी वह प्रस्तुति ही एक तरह से डाइवर्सन चली गयी औ अन्य बकवाद सामने आगये. हालाँकि मैं लाख निवेदन करता रहा कि ऐसे अनावश्यक विन्दु न उठाये जायँ.

बड़ा विचित्र सा अनुभव था वह मेरे लिए भी और इस मंच के लिए भी. किन्तु, जैसा कि विदित है, हम सभी जन सीखने में विश्वास करते हैं. उस एपीसोड से भी हमने बहुत कुछ सीखा और वैचारिक एवं व्यावहारिक रूप से कुछ और समृद्ध हुए.

२. यह अवश्य है कि उसी एपीसोड के संदर्भ और परिप्रेक्ष्य के क्रम में इस मंच के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराजप्रभाकरजी ने अपनी टिप्पणी की है. साथ ही, अपनी मौज़ूदा टीम के सर्वाधिक सक्रिय, सकारात्मक और संवेदनशील सदस्यों में से एक सदस्य भाई बृजेशजी को आपने अग्रजवत सुझाव दिया है.

भावावेश में तथ्य और बातें तो समझ में आती हैं, लेकिन किसी अदम्य घूर्णन करती प्रक्रिया का त्वरण (Acceleration) इतना आग्रही और साथ ही प्रचंड हुआ करता है कि उसे बलात रोक पाना मानसिक तथा वैचारिक रूप से अत्यंत दृढ होने की अपेक्षा करता है.

३. किसी व्यावहारिक भाव के क्रम में, अपने को आहत समझना अत्यंत सहज है. लेकिन समुच्चय में किसी विन्दु पर मनन करना, उसके प्रतिफल को सोचना किसी को सामान्य की श्रेणी से अलग करता है. यही अलग होना किसी रचनाकार (साहित्यकार) की कसौटी है.

भाई बृजेश जी से टेलिफोन पर मेरी प्रस्तुत विन्दु के अलावे कई-कई समान विन्दुओं पर भी लम्बी बात हो चुकी थी.

मेरा एक प्रश्न अब सादर निवेदित है, भाई, मेरे उस टेलिफोनिक वार्तालाप से आपने क्या अर्थ लगाया ? भाई, आप भी कहीं किसी मंच पर प्रथम पुरुष हैं. वहाँ आपने मेरे किसी ’कहे’ का कितना मान रखा है ? अभी तक ? क्यों, कुछ सदस्य किसी गहन प्रस्तुतीकरण का भले माखौल न उड़ायें लेकिन उस पूरी प्रस्तुति को हल्के में लेकर बतकूचन करें, और आप अभीतक कुछ न कहें, यह कैसा धैर्य है ? उसे आपने अभीतक क्यों सहा हुआ है ?

फिर तो मैं यह भी सोच लेने के लिए स्वतंत्र हूँ कि परस्पर शाब्दिक शिष्टाचार चाहे जो हो, आपकी दृष्टि में मेरी वास्तविक स्थिति मुझे स्पष्ट हो गयी ! यह मेरे आरोप नहीं हैं बृजेश भाईजी. यह एक ऐसा विन्दु है जो मैं और सिर्फ़ मैं ही उठा सकता हूँ. हो सकता है कि मेरी वह प्रस्तुति बहुत हल्की हो, बिना किसी तथ्य की हो, या उसकी प्रासंगिकता का आपके उस समूह में कोई सार्थक अर्थ न रहा हो लेकिन मेरे उक्त आलेख और प्रयास को एक तरह से नकार कर कइयों का अन्यथा बकवाद तो मुझे एकदम से समझ में नहीं आया था. इस पर मैंने आपत्ति भी ज़ाहिर की थी. आपसे बातें भी की थी. किन्तु, वहाँ अभीतक का हश्र क्या है ! भाई, कोई अपेक्षा बहुत ही सहज हुआ करती है. और दायित्व निर्वहन का ढंग बहुत कुछ स्पष्ट तो करता ही है, बहुत कुछ समझाता-बताता-सीखाता भी है. और इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष में हम अनुभवी और व्यावहारिक होते जाते हैं. यह अवय है कि हमारे कुछ अत्यंत आत्मीयजन गंभीर चर्चा और अध्ययन से बिदकते हैं. कारण चाहे जो हो.


एक बात स्पष्ट रूप से, रचनाकर्म सिर्फ़ शाब्दिक वमन नहीं है.  

भाई, मैं उपरोक्त चर्चा को इस मंच पर कत्तई न उठाता लेकिन मेरे टेलिफोनिक बातचीत के बाद भी आपकी ऐसी सान्द्र टिप्पणी आयी है, इसलिए ऐसे विन्दुओं को मैं सतह पर/पटल पर रखना उचित समझ रहा हूँ.
पुनः, भाईजी, व्यक्तिगत आग्रह इतना संघनीभूत क्यो हुआ है ?

विषयों को, चर्चा को सहमति से परिचर्चा के रूप में विन्दुवत उठाया जा सकता है. किन्तु ऐसे नहीं. किसी रचना पर नहीं. वर्ना फिर रचना ही हशिये पर चली गयी न ?


इस रचना पर अन्यान्य टिप्पणियाँ अवश्य बन्द हों. यह प्रस्तुति या ’रचना’ रचनाकार का एक सामान्य सा भावुक संप्रेषण है जो विधा के लिहाज से कहीं नहीं ठहरता. इसे इसी रूप में देखने की आवश्यकता है. इस रचना पर मेरी दोनों टिप्पणियाँ भी उसी लिहाज से आयी है.

बृजेश भाई, प्रारम्भ से आप मेरे अत्यंत आत्मीय रहे हैं. अत्यंत आत्मीय. इसलिए नहीं कि मैं आपको जानता हूँ, यह तो बाद की प्रक्रिया है. इसलिये कि मुझे आपकी सीखने की आवृति बहुत आश्वस्त करती है. और, मैं उसी के मोह में रहता हूँ. मेरी बात अन्यथा लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ.

शुभेच्छाएँ


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 13, 2013 at 12:06pm

आदरणीय साथियों, लगता है कि यह चर्चा जोकि एक विवाद का रूप धारण कर चुकी है, ने कइयों को आहत किया है. निजी तौर पर मुझे इस बात ने बेहद दुखी किया है. चर्चा को यह रूप अख्त्यार नहीं करना चाहिए था, मगर ऐसा हो गया. पंजाबी भाषा की एक कहावत है कि विवाद और लस्सी को जितना चाहे बढ़ा लो. मगर हमें ऐसा हरगिज़ नहीं होने देना है. ओबीओ एक परिवार है जिसने अभी अभी उड़ना सीखा है, मंज़िल तक हम सब को मिलजुल कर ही पहुंचना है.             

भाई बृजेश जी, आपको कहीं नहीं जाना है - यहीं रहना है. और आपको कहीं जाने दूंगा क्या मैं ? मैं जोड़ने में विशवास रखता हूँ न कि तोड़ने में. मेरी किसी बात ने अगर आपको आहत किया हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.

मित्रो, ज़रूरी है कि इस अध्याय को यहीं इतिश्री कर हम आगे बढ़ें। काम बहुत ज़यादा है और समय बहुत कम. अत: मेरी सभी आदरणीय साथियों से बिनती है कि इस चर्चा को यहीं विराम दिया जाए.             

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 13, 2013 at 11:25am

आदरणीय बृजेश भाई जी एवं आदरणीया गीतिका जी दोनों ही मेरे मित्र हैं. कई दिनों से निजी व्यस्तता के कारण मंच को समय नहीं दे सका. अभी तक काफी प्रतिक्रियाएं हो चुकी हैं किन्तु हल नहीं निकला प्रत्येक टिप्पणियों के बाद विवाद बढ़ता ही चला गया है. मेरा मानना है कि जहाँ तक हो सके विवाद को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए न कि विवाद को बढ़ाने का. जहाँ तक बात बृजेश भाई की प्रथम टिपण्णी का है तो उन्होंने केवल आदरणीया गीतिका जी से अपने प्रश्नों के उत्तर मांगे हैं उस टिपण्णी में ऐसा कुछ नहीं था जिस कारण से विवाद हो यदि उस टिपण्णी में ऐसा कुछ होता तो कदाचित आदरणीय वीनस भाई जी उस टिपण्णी पर जरुर आपत्ति दर्ज करते जैसा कि उनहोंने गीतिका जी की टिपण्णी पर दर्ज किया है. मैं निवेदन करता हूँ कि वरिष्ठजन इस समस्या का उचित हल निकालें और वाद विवाद को समाप्त करवाएं. आदरणीय बृजेश भाई जी से भी कहना चाहूँगा कि मंच न छोड़े. सादर

Comment by vandana on December 13, 2013 at 7:07am

आदरणीय गीतिका जी सुन्दर लयबद्ध रचना ....

Comment by Vindu Babu on December 13, 2013 at 6:28am

     मेरी प्रतिक्रिया यहाँ पर अनाधिकार हो तो मैं पहले ही क्षमाप्रार्थी हूँ,वैसे कुछ कहने के लिए इस मंच की छोटी ही सही पर सदस्य हूँ।आदरणीय बृजेश जी के आक्रोश का मैं समर्थन तो नहीं पर इतना कहूंगी कि आपका आक्रोश एक 'विधा पर किये गये कटाक्ष के कारण है तो इसे  व्यक्तिगत क्यों कहा जा रहा है,विधा कोई व्यक्तिगत तो नहीं होती! आपने एक सक्रिय कार्यकारिणी सदस्य होने के नाते ऐसे बिंदु प्रकाश में लाने का दायित्व निभाया है।  मंच की हर प्रतिक्रिया निष्ठापूर्ण होने की सादर अपेक्षा है।

फिर जब आदरणीया गीतिका जी ने कह दिया कि अब टिप्पणियाँ बहुत सोच समझ कर करेंगी तो बात यहीं पर ठंडी हो जानी  चाहिए थी पर यहाँ तो....

खैर,निर्णायक मंडल की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है...

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 13, 2013 at 3:44am
सोचा था कुछ नहीं कहूंगा लेकिन .....जब धुँआ उठता है तो आग भी कहीं न कहीं है. बृजेश जी जैसे सम्माननीय सदस्य को जब इतना क्षोभ है तो उसके पीछे कारण भी निश्चित रूप से होना चाहिये. एक परिवार में जब ऐसी कठिन घड़ी आती है तब उस परिवार के वरिष्ठ ही अपनी विचक्षणता से समस्याओं का समाधान करते हैं.ओ.बी.ओ. के लिये इसका उत्तरदायित्व एडमिन पर है. विनम्र निवेदन है आप वरिष्ठ जनों से कि अपनी उदारता से और विवेक का निर्वाह करते हुए पारिवारिक शांति पुन: बहाल करें. रचनाकारों का हृदय स्पर्शकातर होता है यह आप लोगों से बेहतर कौन जानता होगा?? कृपया वरिष्ठ सदस्य इस प्रकार के असंयमी मंतव्य न करें कि कोई आहत हो...उदाहरण स्वरूप // अतुकांत विधा में एक आप ही नहीं और लोग भी इस मंच पर लिखते हैं आपकी इस प्रतिक्रिया में किसी आक्रोश की बू क्यों आ रही है आश्चर्य चकित हूँ इतने गंभीर समझदार रचनाकार से ये उम्मीद बिलकुल नहीं थी रही बात कार्यकारिणी के उत्तरदायित्व को छोड़ने की ---ये शब्द भी असहनीय लग रहे हैं //

कृपया ध्यान दे...

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