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लबों से आज गायब हो गई मुस्कान है
अजब सी अब परेशानी लिए इन्सान है /
कभी तो दिन भी बदलेंगे ,मिलेगा चैन तब
दुखों का अंत होगा तब यही अनुमान है /
गिले शिकवे यूँ अब हावी हुए रिश्तों पे हैं
लगा अब दांव पर परिवार का सम्मान है /
किसे अपना कहें किसको पराया हम कहें
यहाँ हर चेहरे की अब छुपी पहचान है /
रचे हैं साजिशें गहरी मगर अब सोचते
जफ़ा पाकर खुदी का डोलता ईमान है /
..............................................
...........मौलिक व अप्रकाशित.........
Comment
शुक्रिया सुशील भाई
आदरणीय शीज्जू जी तह दिल से शुक्रिया आपको गजल पसंद आई
भाई विजय मिश्र जी हार्दिक अभिनन्दन
आदरणीय गिरिराज sir ,हार्दिक आभार
सुंदर प्रस्तुति है आ0 सरिता जी.... बहुत बहुत बधाई.....
आदरणीया सरिता जी ग़ज़ल बहुत अच्छी है सादर बधाई स्वीकार करें,
इसमें आप "है" रदीफ़ को हटाकर गैर-मुरद्दफ ग़ज़ल की तरह पेश करें तो लुत्फ और बढ़ जायेगा मसलन-
//लबों से आज गायब हो गई मुस्कान
अजब है अब परेशानी लिए इन्सान
कभी तो दिन भी बदलेंगे सुकूं होगा
दुखों का अंत होगा है यही अनुमान // और बह्र होगा 1222 1222 1222
ये मेरी अपनी राय है इसका मतलब ये कतई नही है कि आपकी ग़ज़ल में खामी है
आदरणीया सरिता जी , सुन्दर गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!
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