निकले धूप और कभी बादल हैं पिघलते रहें
मौसमों की फितरतों में है की बदलते रहे
कभी पके कभी फुटे लौंदे गए रौंदे गए
मस्त होके जिंदगी के सांचे में ढलते रहे
शिकवा नहीं जीवन के है उतार और चढाव से
तकदीर के जानों पे हम ख़ुशी ख़ुशी पलते रहे
मुश्किलों तो आएँगी हज़ारों राह में मगर
कारोबार-ए-जिंदगी के कारवां चलते रहे
आयें लाखों तूफां पर उम्मीदें बुझ सकें नहीं
हौसलों के साए में चराग ये जलते रहे
चलकर खिलाफ लहरों के हम पहुंचे हैं किनारों पर
लोगो की निगाह में यूँ ही नहीं खलते रहे
शरद
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शरद कुमार जी ओबीओ परिवार में आपका हार्दिक स्वागत है, प्रयास बहुत ही अच्छा है शिल्प पर थोडा और ध्यान दें कसावट की कमी दिख रही है. हम सब आपके साथ हैं प्रयासरत रहें मुझे कुछ कमियां लगीं जो इस प्रकार हैं. प्रयास हेतु मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकारें
निकले धूप और कभी बादल हैं पिघलते रहें (यहाँ रहें और बाकी अन्य पंक्ति में रहे कृपया ठीक कर लें)
मौसमों की फितरतों में है की बदलते रहे ( मौसमों कुछ अटपटा सा लग रहा है)
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