हरिगीतिका छंद
हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका (५, १२, १९, २६ वीं मात्रा लघु, अंत लघु गुरु) x ४
ब्रह्माण्ड सदृश विराटतम निःसीम यह विस्तार है
हर कर्म जिसमें घट रहा संतृप्त समयाधार है
सापेक्षता के पार है चिर समय की अवधारणा
सद्चेतना से युक्त मन करता वृहद सुविचारणा //१//
चैतन्य-जड़ थिर-अथिर का विस्तार जिसमें व्याप्त है
लय काल त्रय संपूर्ण जिसमें क्षण सदा संप्राप्त है
जो विगत आगत काल संधि प्रमाण का दृष्टा सदा
वह काल शिल्पी ब्रह्म सम प्रति क्षण चिरंतन सर्वदा//२//
अवचेतना में सुप्त स्मृतियाँ विगत का आभास हैं
संचित हुए निज ज्ञान का चित-वृत्तियाँ संत्रास हैं
निज वृत्तियों को जीत कर जो शून्य स्मृति में रम रहा
नित सत्य में विचरण करे, त्रय काल का दृष्टा हुआ//३//
जो गुप्त चेतन नित्य क्षण के गर्भ में अस्पृष्ट है
चिंतन परे वह कल्पना चित वृत्तियों से पुष्ट है
अनुभूतियों के तार पर, आगत्य सुधि से रिक्त है
मनभावना आधार पर गत्यानुभव संसिक्त है //४//
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर आदरणीया
इस सुन्दर काव्यरचना हेतु बहुत बहुत बधाई स्वीकारिये
बहुत सुन्दर कथ्य और भाव लिए हरिगीतिका रचना पढने को मिली | मनुष्य का मन पुरे ब्रह्मांड में विचरण करने की
असीम क्षमता रखता है | हमारे ऋषि मुनि और कविगण के लिए कहते है -"जहाँ न पहुच रवि,वहां पहुंचे कवि" |
विज्ञान भी कहता है कि मानव के दिमाग में जब कोई बात महत्वपूर्ण प्रभाव छोडती है तो वह अवचेतना अवस्था,
सुप्तावस्था या (sub-conscious mind) में चली जाती है और किसी घटना के घटने पर स्मरण हो आती है |
मानव मन की कल्पना, चिंतन और अनुभूतियों पर सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची जी | सादर
अति सुंदर भाव, उत्कृष्ट शब्दों से पिरोई रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीया डा. प्राची जी
शिल्प के बारे में तो ज्यादा जानकारी नहीं, पर हां शब्द चयन की दृष्टि से एक उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीया प्राची जी।
बहुत ही उत्कृष्ट , सुन्दर शब्द संयोजन..
वाह बहुत सुन्दर हरिगीतिका छंद लिखा है प्रिय प्राची जी ,शानदार शब्द संयोजन उन्नत भाव शिल्प पर कसी हुई प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई.
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