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रंगीन पन्ने (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

"धत्त्तेरे की... क्या भर देते हैं ये न्यूजपेपरों के बीच में..", मैने एकबारग़ी झल्लाते हुये कहा.


कई रंग-बिरंगे पैम्फलेट मेरे अखबार से निकल कर सरसराते हुए जमीन पर गिरते गये. इन रंगीन पन्नों में बच्चे के प्रेप में एडमिशन से ले कर नये-नये खुले इन्जिनिरिंग कॉलेज में दाखिले तक के, साड़ी खरीदने से ले कर मकान खरीद लेने तक के, या और भी न जाने क्या-क्या उपलब्ध करा देने के दावे हुआ करते हैं.
महरी झाडू लगाते हुए उन रंगीन पन्नों को बुहार कर घर के बाहर पेड़ के पास फेंक आयी, कचड़ावाले को उठा ले जाने के लिए. 

पेड़ ने चुप-चाप एक नजर उन रंगीन पन्नों पर डाली. उसे कहीं दूर अपने भाई-बन्धुओं पर कुल्हाड़ों के चलने की आवाज सुनायी दे रही थी.. ठक् ठक् ठक्....... 
नम आँखें बद किये पेड़ देर तक सिहरता रहा.... 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 18, 2013 at 9:16pm

लघुकथा ख़ास हो जाती है जब कथाकार कथा में किसी सन्देश को निहित कर देता है, बात छोटी सी किन्तु उसका इम्पैक्ट कितना बड़ा है, बहुत ही अच्छी कथा हुई है, बहुत बहुत बधाई प्रिय शुभ्रांशु भाई । शायद यह आपकी पहली लघुकथा है । 

Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 18, 2013 at 7:35pm

मार्मिक रचना हेतु बधाई शुभ्रांशु जी !!!

Comment by वेदिका on October 18, 2013 at 4:51pm

कुदरत का निर्ममता पूर्वक दोहन किया जाता है और मानव कुदरत का अंग होके भी इसे अनसुना करता है| न जाने हम कब ईकोफ्रेंडली होगे!!

पीड़ा की गाथा पर चित्रित कथा पर आप साधुवाद के पात्र है आ0 शुभ्रांशु भैया !

 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 18, 2013 at 2:26pm

आदरणीय सुशील जोशी, वृक्ष की पीडा़ और वेदना के साथ एकाकार होने के लिये बधाई...

Comment by Shubhranshu Pandey on October 18, 2013 at 2:20pm

कथा पर अपने विचार रखने के लिये धन्यवाद आदरणीय गिरिराज जी. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 18, 2013 at 2:16pm

आदरणीया सरिता जी. कथा पर अपने विचार देने के लिये शुक्रिया. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 18, 2013 at 2:14pm

आदरणीय अभिनव जी, कथा पर प्रतिक्रिया देने के लिये धन्यवाद. कथा का मर्म सम्प्रेशित हुआ ये मेरे लिये राहत की बात है.  

Comment by coontee mukerji on October 18, 2013 at 12:50pm


पेड़ ने चुप-चाप एक नजर उन रंगीन पन्नों पर डाली. उसे कहीं दूर अपने भाई-बन्धुओं पर कुल्हाड़ों के चलने की आवाज सुनायी दे रही थी.. ठक् ठक् ठक्....... 
नम आँखें बद किये पेड़ देर तक सिहरता रहा.... 

(कितनी पीड़ाजनक है.....वैज्ञानिक जगदीश चंद्र वसु की बात याद आ गयी कि पेड़ों में भी जान होती है....वे संगीत सुनकर बढ़ते है और इंसान की तरह दुख में दुखी भी होते हैं. आपने इनकी पीड़ा महसूस की.)

इस रचना के लिये आपको साधुवाद.

सादर

कुंती.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 18, 2013 at 8:54am

प्रचार के सस्ते साधन प्रकृति को कितने महंगे पड़ते हैं, लघु कथा अपने उद्देश्य में सफल रही, आदरणीय शुभ्रांशु जी...बधाइयाँ....

Comment by बृजेश नीरज on October 18, 2013 at 7:14am

बहुत सुन्दर बात कह दी आपने! आपकी उपस्थिति से तो रूबरू होता रहा हूँ लेकिन आपकी किसी रचना से पहली बार मिल रहा हूँ! बहुत अच्छी लघु कथा! आपको ढेरों बधाई!

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