आत्म-मन्थन
कभी-कभी इन दिनों
आत्म-मन्थन करती
जीवन के तथ्यों को तोलती
मेरी हँसती मनोरम खूबसूरत ज़िन्दगी
जाने किस-किस सोच से घायल
कष्ट-ग्रस्त
‘अचानक’ बैठी उदास हो जाती है
लौट आते हैं उस असामान्य पल में
कितने टूटे पुराने बिखरे हुए सपने
भय और शंका और आतंक के कटु-भाव
रौंद देते हैं मेरा ज्ञानानुभाव स्वभाव
और उस कुहरीले पल का धुँधलापन ओढ़े
अपने मूल्यों को मिट्टी के पहाड़-सा गिरता देख
उसी मिट्टी में धंस जाता हूँ
छ्टपटाता हूँ
जितनी अधिक ऊँचाई थी मूल्यों की
उतना अधिक भार ढोता हूँ अपने पर
उस समय पास कोई रेश्मी आँचल नहीं
मद्धम-सी रोशनी का कोई सुराख़ भी नहीं
मेरे ही प्रिय सिधांत
टूट-टूट पड़ते हैं मुझ पर
क्यूँ ? .. आख़िर क्यूँ ? ...
इसलिए कि मैंने उस समय
भय और शंका और आतंक के कटु-भाव को
अनुशासन के प्रबल पर्वत-प्रतीकों से नहीं रोका ?
पर मुझको तो था विन्यस्त विश्वास
है आत्मा ही परमात्मा
सुख-शान्ति प्राधान्य है
वह न जन्मती है, न मरती है
फिर क्यूँ लगता है आज
किसी के अप्रत्याशित प्रहार से खंडित
जीवन के अति सूक्षम तथ्यों के बीच
टूट रही है, हार रही है आत्मा ?
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- विजय निकोर
९-२९-१३
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
// बहुत ही सुन्दर चिंतन// ...
इन शब्दों से प्रोत्साहन देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज भाई।
सादर, विजय निकोर
आदरणीय राम जी:
//आत्म मंथन का सारा रस निचोड़ लिया आपने वाह ! बहुत सुन्दर रचना//
आपके औदार्य को नमन... सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय अखिलेश जी:
//बधाई विजय भाई अपनी पीड़ा के बहाने सब की आत्मा को जगाने के लिए //
आपकी प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक और प्रेरक है मेरे लिए ...
हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
वि्जय निकोर
प्रेम सदा से द्वैत भाव का परिपोषक होता हुआ भी अद्वैत भाव को ही जीता है. इसी कारण परमात्मा की अवधारणा रोमांचित करती है.
असंप्रज्ञात अवस्था दैहिक अवस्था से भी प्राप्य है, भले क्षणिक ही सही. और, इस संयुज्ज्य भाव को अतिरेक में जीना नहीं कहते. तभी तो, समस्त नैतिक विन्दुओं, अनुशासन और व्याकरण को न मानते हुए जीना चाहता है कवि जो कि अवश्य ही साधन मात्र हैं.
इसी कारण, कवि कह उठता है -
भय और शंका और आतंक के कटु-भाव को
अनुशासन के प्रबल पर्वत-प्रतीकों से नहीं रोका ?
पर मुझको तो था विन्यस्त विश्वास
है आत्मा ही परमात्मा
सुख-शान्ति प्राधान्य है
वह न जन्मती है, न मरती है
फिर क्यूँ लगता है आज
किसी के अप्रत्याशित प्रहार से खंडित
जीवन के अति सूक्षम तथ्यों के बीच
टूट रही है, हार रही है आत्मा ?
इस अत्युच्च भावदशा को साझा करने के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय.
सादर
जितनी अधिक ऊँचाई थी मूल्यों की
उतना अधिक भार ढोता हूँ अपने पर
उस समय पास कोई रेश्मी आँचल नहीं
मद्धम-सी रोशनी का कोई सुराख़ भी नहीं
मेरे ही प्रिय सिधांत
टूट-टूट पड़ते हैं मुझ पर
क्यूँ ? .. आख़िर क्यूँ ? .......
नमस्कार आदरणीय ....आपकी रचनाएं ... नित गहन चिंतन के नित नए सोपान गढ़ती है ....बधाई स्वीकार करें
गंभीर चिंतन को उद्ववेलित करते इस रचना पर आदरणीय निकोरजी आपको बहुत बहुत बधाई
आपकी रचना सोचने पर बाध्य कर देता है,आदरणीय विजय जी....जैसे हर संम्वेदन इंसान की बात हो...जो आप की लेखनी ने उकेरी हो.
सादर
कुंती
आदरणीय विजय निकोर सर प्रणाम, सुन्दर आत्म मंथन रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
सच! सदा की तरह, आपकी रचना में जीवन के तमाम अनुभव उमड़े हुए, बहुत बहुत बधाई आदरणीय विजय निकोर जी
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