बह्रे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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2122/ 2122/ 2122/ 212
हैं परे सिद्धांत से, आचार की बातें करें;
भोथरे जिनके सिरे हैं, धार की बातें करें;।।1।।
मछलियाँ तालाब की हैं, क्या पता सागर कहाँ?
पाठ जिनका है अधूरा, सार की बातें करें;।।2।।
उँगलियाँ थकने लगीं हैं, गिनतियाँ बढ़ने लगीं,
जब जहाँ मिल जाएँ, बस दो-चार की बातें करें;।।3।।
इन पे यूँ अपनी तिजारत का जुनूं तारी हुआ,
लाश के ऊपर खड़े व्यापार की बातें करें;।।4।।
हर धरोहर मिट रही है, ख़ाक हो, उनकी बला,
वे हड़प कर कोष, जीर्णोद्धार की बातें करें;।।5।।
तर न पाओगे ये वैतरणी हमारे बिन कभी,
ख़ुद फँसे मझधार में जो, पार की बातें करें;।।6।।
वक़्त दे कर गुमशुदा हैं, शान इनकी है यही,
जब ज़बां खोलें वही बेकार की बातें करें;।।7।।
दस बरस में चीथड़ों में आ गया भारत मेरा,
ग़र्क़ बेड़ा कर दिया, उद्धार की बातें करें;।।8।।
उफ़ जहालत की ये हद है,बे-ख़बर ऐसे हुए,
है सुई इक हाथ में, तलवार की बातें करें;।।9।।
ज्ञानियों की पूछ हो पर मूढ़ को भूलें नहीं,
वे भी अक्सर मूर्खता में भार की बातें करें;।।10।।
दोस्ती जब खुल के की तो दुश्मनी से डर हो क्यूँ,
हम न कायर पीठ पर जो वार की बातें करें;।।11।।
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Saurabh जी
आपका अनुमोदन सदैव ही प्रोत्साहित करने वाला होता है ।आपकी शिक़ायत अपनी जगह जाइज़ है किन्तु मेरी भी विवशताएँ हैं। विगत कुछ समय से समय के चक्र ने ऐसे उलझा रखा है कि मैं चाह कर भी अपने मन की नहीं कर पा रहा हूँ। एक बार सबकुछ पुनः पटरी पर आ जाने दीजिए, आप लोगों को शिक़ायत का मौक़ा नहीं दूंगा। सादर,
वाह भाई जी वाह !
आपका नया तेवर और नया अंदाज़ देख रहा हूँ. सीधी-सच्ची बात बिना किसी लपेट के. फिर भी बड़ी ग़ज़ल कह गये. बहुत-बहुत दाद कुबूल करें.
संदीप वाहिदजी, आपसे एक शिकायत है हमारी. रहते-रहते कहाँ अलोत हो जाते हैं ? हम आपको क़ायदे से यहीं सुनना पसंद करते हैं.
शुभकामनाएँ
ग़ज़ल को अपनी कृपादृष्टि से नवाज़ने और सारगर्भित टिप्पणियों हेतु आप सभी सुधिजनों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ! सादर,
सुन्दर ग़ज़ल आ० संदीप द्विवेदी जी
सभी अशआर बढ़िया है , पर यह दो शेर ख़ास पसंद आये
मछलियाँ तालाब की हैं, क्या पता सागर कहाँ?
पाठ जिनका है अधूरा, सार की बातें करें..
तर न पाओगे ये वैतरणी हमारे बिन कभी,
ख़ुद फँसे मझधार में जो, पार की बातें करें
शुभकामनाएं
वाह भाई वाह कामयाब ग़ज़ल सभी के सभी अशआर दिल को छू गए भाई क्या कहने जबरदस्त ग़ज़ल कही है अपने दिली दाद कुबूल करें.
बेहतरीन गजल ,बधाई स्वीकारें आदरणीय संदीप जी
इन पे यूँ अपनी तिजारत का जुनूं तारी हुआ,
लाश के ऊपर खड़े व्यापार की बातें करें;।।4।।
हर धरोहर मिट रही है, ख़ाक हो, उनकी बला,
वे हड़प कर कोष, जीर्णोद्धार की बातें करें; आदरणीय वाहिद जी बहुत दिनों के बाद आपकी गज़ल पढने को मिली .....बेहद उम्दा .. समसामयिक जानदार प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें
बेहतरीन गज़ल //////////वाह भाई वाह एक एक शेर लाजवाब //बहुत बहुत बधाई आपको
बेहतरीन गज़ल .... हार्दिक बधाई स्वीकारें
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