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अपनों को खोके बहुत रोता है आदमी,

यादों के जब बोझ को  ढोता है आदमी.

रिश्ते जो हो न सके कामयाब सफ़र में

उन्हीं को करके याद दामन भिगोता है आदमी

 

पहले काटता है पेड़,  जलाता है जंगलात ,

एक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी .

 

बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय,

पाता वही वही है जो बोता है आदमी ..

......... नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on September 14, 2013 at 11:34pm
सही है , जो बोता है वही काटता है आदमी । इस रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 14, 2013 at 7:12pm

प्रयास बढ़िया है, शिल्प पर अभी बहुत कसरत करने की जरुरत है । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 6:12pm

आदरणीय नीरज भाई , सुन्दर बात ,सुन्दर रचना !! बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

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