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जन्माष्टी के उपलक्ष में निवेदित रचना-
 

विमुग्ध हो फूल का रसपान कर

ज्यों त्यागते हों भ्रमर !


भाँति तेरे कृष्ण भी,
बंशी सुनाते,
चुरा कर चित्त कुब्जा में रमें
छोड़ दी मेरी खबर ।
पीत पर लहराता है तू भी,
निज मित्र के पट पीत सम,
तू भी काला श्याम सा
कपटी कुचाली प्रीति डोरी तोड़ पल में
मन रिझाता है ।
भृंग की भनक संदेश है क्या?


पर...
गोपियां सुनतीं व्यथा कह उससे,
द्वन्द्व, मन का घटातीं,
प्रेम जो आधार है ।
प्रेम के करतब निराले
शान अद्भुत् और अगणित आयाम हैं ।
प्रेम से ही श्याम कपटी मूढ़ भौंरा
घनश्याम के समान है ।

***********************************

*संशोधित
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vindu Babu on October 2, 2013 at 11:35pm
आदरणीय सुरेन्द्र शुक्ला जी आप यहां पधारे इसके लिए आपका बहुत आभार।
मैं आदरणीय एडमिन महोदय से निवेदन कर चुकी हूं,कि रचना को आदरणीय सौरभ सर द्वारा सुझाये विन्यास में परिवर्तित कर दें,पर मुझे नहीं मालूम कि उन्हें वह फारमेट गद्य में क्यों दिखा,इसलिए संशोधन नहीं हो सका। मैं पुन: निवेदन करूंगी।
आदरणीय आपकी टिप्पणी के अन्त में लिखा 'भ्रमर ५' मैं नहीं समझ पाई।
सादर
Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on October 2, 2013 at 11:26pm

वंदना जी जय श्री राधे बहुत सुन्दर भाव ...श्याम श्याम हो गया मन ..हमारे विद्वद भ्राता सौरभ जी ने जो वाक्य विन्यास सुझा के रचना का श्रृंगार किया है उस पर ध्यान दीजियेगा ...
आभार
भ्रमर ५

Comment by Vindu Babu on September 9, 2013 at 6:35pm
जी आदरणीय मैं अभी एडमिन से निवेदन करती हूं रचना को संशोधित करने के लिए।
अतुकान्त के बारे सार्थक जानकारी साझा करने के लिए आपका बहुत आभार आदरणीय।
स्नेह बनाए रखें।
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 1:03am

मेरे कहे को अनुमोदित करने के लिए आपका सादर आभार, आदरणीय श्यामजी.

शुभम्


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2013 at 12:22am

कविता का आधार बहुत संयत होते हुए भी प्रस्तुतीकरण के लिहाज से असंप्रेषणीय हो गयी है.

अतुकान्त कविताओं में भी गठन होता है जिसके प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है.

आपकी कविता को पुनः संयोजित करने का प्रयास किया है .. देखियेगा -

विमुग्ध हो फूल का रसपान कर

ज्यों त्यागते हों भ्रमर !


भाँति तेरे कृष्ण भी,
बंशी सुनाते,
चुरा कर चित्त कुब्जा में रमें
छोड़ दी मेरी खबर ।
पीत पर लहराता है तू भी,
निज मित्र के पट पीत सम,
तू भी काला श्याम सा
कपटी कुचाली प्रीति डोरी तोड़ पल में
मन रिझाता है ।
भृंग की भनक संदेश है क्या?


पर...
गोपियां सुनतीं व्यथा कह उससे,
द्वन्द्व, मन का घटातीं,
प्रेम जो आधार है ।
प्रेम के करतब निराले
शान अद्भुत् और अगणित आयाम हैं ।
प्रेम से ही श्याम कपटी मूढ़ भौंरा
घनश्याम के समान है ।

इस रचना के भाव के अनुरूप वाक्यांश नहीं हुआ है. न ही उस अनुरूप शब्द बन पाये हैं. इससे संप्रेषणीयता भी सटीक नहीं बन पायी है. अतुकान्त रचना के वाक्यों का भी विन्यास होता है.

सादर

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