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सुखद स्मृतियाँ

दुमहले के ऊँचे वातायन से

हलके पदचापों सहित  

चुपके से होती प्रविष्ट

मखमली अंगों में समेट

कर देती निहाल

स्वयं में समाकर एकाकार कर लेती

घुल जाता मेरा अस्तित्व

पानी में रंग की तरह

अम्बर के अलगनी पर

टांग दिए हैं वक्त ने काले मेघ

चन्द्रमा आवृत है , ज्योत्सना बाधित

अस्निग्ध हाड़ जल रहा

सीली लकड़ियों की तरह

स्मृति मञ्जूषा में तह कर रखी हुई हैं

सुखद स्मृतियाँ.....

.. नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित ..

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on August 24, 2013 at 10:19pm

आदरणीय विजय निकोरे जी आभार..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 24, 2013 at 9:04pm

सुखद स्मृतिओं के पदचाप और उसमें विलयित होता अस्तित्व 

...एक खूबसूरत मर्मस्पर्शी अनुभूति 

सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by vijay nikore on August 24, 2013 at 7:22pm

आदरणीय नीरज जी:

 

इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

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