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माँ की डायरी से

१- सितार के टूटे हुए तार
 वह एक भावुक, कमनीय सी लडकी; सब सहपाठी छात्राओं से, आयु में कहीं छोटी।  कई क्लासें फांदकर बारहवीं तक पहुंची थी ताकि विधवा माँ को, हर बार, फीस के पैसे न चुकाने पड़ें.  उसके अभावग्रस्त परिवार में, सपनों के लिए, कोई स्थान न था. लेकिन ख्वाबों के पर, फिर भी, निकल ही आते हैं! अम्मा ने किसी प्रकार पैसे जोड़कर, उसे एक नन्हा सा सितार दिलवाया क्योंकि स्कूल में, सितार भी एक विषय था. सितार को देखते ही, उसे रोमांच हो आया. हृदय की सुप्त उमंगें, उमड़ पड़ीं.
अब वह रोज सुबह, जल्दी उठकर रियाज़ करने लगी. उसकी नन्हीं उँगलियाँ, वाद्य के तारों से खेलतीं.  साथ ही मन कुलांचे भरता रहता, उँगलियों से खून रिसने लगता; किन्तु अभ्यास नहीं बंद होता. कक्षा में जब छात्राएं, अध्यापिका के साथ सितार बजातीं तो उसकी उँगलियों का जादू, स्वरलहरियों में तैरकर, झंकृत हो उठता; यहाँ तक कि शिक्षिका का प्रदर्शन भी, फीका पड़ जाता।
"गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गया" वाली स्थिति, अध्यापिका के लिए असह्य होती जा रही थी और वह, उसे अपमानित करने का, बहाना ढूंढ रही थी. भोली लड़की इस बात से अनजान थी. एक दिन शिक्षिका को वह बहाना मिल गया. एक दिन जब कक्षा में, अभ्यास शुरू हुआ तो सभी लड़कियों ने रियाज के लिए, एक एक सितार उठा लिया। संयोग से उसके हाथ, जो सितार लगा, वह पहले से ही टूटा था. किसी ने पहले उसे तोड़ा, फिर टूटे हुए तारों को, अटका दिया। सितार पर उंगलियाँ फेरते ही, तार अलग हो गये.

बस फिर क्या था!! टीचर उस पर बरस पड़ी और 'फाइन' भरने का फरमान सुना दिया। लड़की की आँखें छलक आयीं। उसकी भावनाएं आहत तो हुईं ही पर उससे भी बड़ी बात ये थी कि जुर्माना कैसे चुकाया जाये?! घर में इतने पैसे कहाँ थे! अम्मा को बताने की हिम्मत न हुई. वे सुन लेतीं तो बेचारगी में झल्लातीं।  उसने चुपके से यह बात, अपने बड़े भाई को बताई। दोनों ने मिलकर अपनी अपनी गुल्लकें तोड़ दीं. कई सारे, चिल्लर मिलाकर, किसी भांति जुर्माने की रकम जमा की.
जब उसने शिक्षिका के हाथ पर वो रकम रखी तो चिल्लरों का ढेर देखकर,  बिना कहे,  वे सब कुछ समझ गयीं. नन्ही सी लडकी की व्यथा,  हृदय को विगलित कर गयी. उसके लिए मन में, ममत्व फूट पड़ा. सारे दुराग्रह, ममत्व के उस सोते में बह निकले. उस दिन के बाद से, वह छात्रा, उन्हें बेटी की तरह अज़ीज़ हो गयी.
२- कॉटन का लंहगा
उस छोटी लडकी को, संगीत का शौक था. माँ ने कहा, "गाना सीखने के लिए पैसे दे दूंगी लेकिन डांस के लिए नहीं...दो दो चीजों के लिए, फीस नहीं भर सकती" गाने के  अलावा, नृत्य की कक्षा  भी, वहां  चलती रहती. लडकी अक्सर, हसरत भरी निगाहों से, डांस की प्रैक्टिस को देखती. ध्यान से उन सभी 'स्टेप्स' को मन में बिठाती और घर आकर चुपके चुपके, उनका अभ्यास करती. एक बार नृत्यशाला की तरफ से, कोई आयोजन रखा गया. सामूहिक नृत्य भी, उस आयोजन का एक हिस्सा था. जोरों से अभ्यास चलने लगा. ऐन वक़्त पर, उनमें से एक लडकी, बीमार पड़ गयी. गुरूजी को समझ न आया कि अब वे क्या करें. सहसा उन्हें कुछ सूझा और उन्होंने इशारे से उस नन्हीं लडकी को बुला लिया. उसे उन्होंने कई बार, नृत्य देखते हुए पाया था.
उन्होंने उससे, नृत्य के स्टेप्स को, कॉपी करने का आग्रह किया. आश्चर्य! लडकी ने उनकी अपनी छात्राओं से भी, कहीं बेहतर, नाचकर दिखाया. आयोजन में उसका भाग लेना, सुनिश्चित हो गया. प्रोग्राम वाले दिन, जब सब लडकियों ने; अपने अपने लंहगे निकालकर , पहनना शुरू किया- वह कुंठा से भर उठी . कहाँ उन सबके, चमकते हुए, साटन के लंहगे और कहाँ उसका, साधारण सा सूती लंहगा! हालांकि अम्मा ने, अपनी सामर्थ्य से बढ़कर, पैसे खर्च किये थे- कपडे और गोटे को खरीदने में. अपने हाथों से उसे सिला था, गोटे की किनारी से, सजाया था. सभी नृत्यांगनाएं सज- संवरकर तैयार हो गयीं पर गुरूजी को वह लडकी नहीं दिखी. वे उसे ढूंढते हुए, ड्रेसिंग रूम में पहुचे. वहां वह हताश सी, एक कोने में बैठी थी. उन्होंने पूछा- "तुम तैयार नहीं हुईं? तुम्हारी ड्रेस कहाँ है???"
छुटकी ने सकुचाते हुए, लंहगा उनकी तरफ बढा दिया. लंहगा देखते ही, वे द्रवित हो उठे; उसे ढांढस बंधाते हुए बोले, " अरे अच्छी तो है...शुक्र है तुम ड्रेस लायी हो... मैं तो डर गया था कि शायद, तुम्हारे पास ड्रेस है ही नहीं! चलो फटाफट रेडी हो जाओ" कहते हुए उन्होने सायास, एक छद्म मुस्कराहट ओढ ली. बच्ची की असहायता ने, उन्हें भीतर तक हिला दिया था और उस दिन के बाद से वे उसे, नृत्य की निःशुल्क शिक्षा देने लगे.
ये दोनों घटनाएं, मेरी माँ के बचपन से जुडी हैं. अब आप इन्हें, लघुकथा कहें या संस्मरण- यह आप पर छोडती हूँ.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Vinita Shukla on August 24, 2013 at 2:08pm

रचना के मर्म को गृहण कर, सकारात्मक प्रतिक्रिया देने हेतु, कोटिशः धन्यवाद बृजेश नीरज जी.

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 12:44pm

बहुत ही सुंदर! मन द्रवित करने वाला कथ्य! आपको बहुत बहुत बधाई!
सादर!

Comment by Vinita Shukla on August 24, 2013 at 8:42am

आपने सही कहा, भ्रमर जी; यदि आज के गुरुओं में भी, ऐसी संवेदना पनप सके तो समाज का चेहरा ही बदल जाये. किन्तु अफ़सोस की बात है कि आज समाज के, इन रहनुमाओं के बारे में, कैसी- कैसी बातें सुनने को मिलती हैं - विशेष तौर पर आध्यात्मिक गुरुओं के बारे में. समर्थन एवं सराहना हेतु, कोटिशः आभार.

Comment by Vinita Shukla on August 24, 2013 at 8:38am

अनेकानेक धन्यवाद, जितेन्द्र 'गीत' जी.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 23, 2013 at 11:12pm

आदरणीया विनीता जी मन के सितार के तार को झकझोर गया ये आप का प्यारा लेख दिया दिखा गया काश जैसे इस बाला के काटन के लहंगे को देख गुरु जी मुफ्त शिक्षा देने लगे ऐसे और लोग जज्बातों को भांप कर बदल सकें तो आनंद और आये ...सटीक और खूबसूरत भाव
भ्रमर ५

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 23, 2013 at 10:46pm

बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना ,हार्दिक बधाई आदरणीया विनीता जी

Comment by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 9:47pm

सराहना एवं समर्थन के लिए, कोटिशः आभार, अभिनव अरुण जी.

Comment by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 9:46pm

आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आदित्य जी.

Comment by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 9:45pm

कथाओं के मर्म को गृहण करने तथा प्रशंसा के लिए, हार्दिक धन्यवाद अन्नपूर्णा जी.

Comment by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 9:44pm

आपका हार्दिक आभार, गीतिका वेदिका जी, रचना को समय देने व सराहने के लिए.

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