सांवरी सुन सांवरी
आई मधुर मधुश्रावणी
नभ मीत हृद पर दामिनी
नव ताल से इठला रही
या दिगंबर को उमा
अपनी झलक दिखला रही
सुन सौरभे, हर-गौर, वे
आए स्वयं भव-भामिनी
सांवरी.....................
बावरा बादल मचलता
ढूंढता जिस मीत को
नेह सिंचित दश दिशाएं
लिख रही उसी गीत को
सुन वल्लभे, मुग्धे सुहासित
त्रिभुवन पगी विरूदावली
सांवरी....................
तरू-ताल लकदक , भींगते
सारी धरा अम्लान है
निर्जला व्रत देह सा ही
दिनमणि का ध्यान है
जटाजूट बंकिम इन्दु, गंगे
रच रही चूड़ामणि
सांवरी...............
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
मेरी रचना को मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय, सादर
तरू-ताल लकदक , भींगते
सारी धरा अम्लान है
निर्जला व्रत देह सा ही
दिनमणि का ध्यान है
जटाजूट बंकिम इन्दु, गंगे
रच रही चूड़ामणि
आदरणीय राजेशजी, मधुश्रावणी की मधुरता और विशिष्टता कितनी सहजता से निखरी आयी है ! और यह आपकी लेखिनी ही कर सकती थी. हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय.
सादर
आप सबका हार्दिक आभार, सादर
वाह वाह आदरणीय राजेश जी ...अतिसुंदर ..मन्त्र.मुग्ध करती प्रस्तुति ...के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें /
बहुत ही सुन्दर चित्रण
मनभावन गीत के लिए हार्दिक बधाई ..वाकई शब्दों की जादूगरी ..ढेरों बधाई के साथ
आप सभी के प्रेरणादायक शब्दों हेतु हार्दिक आभार
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