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सुनो ऋतुराज! – ११

सुनो ऋतुराज! – ११


ये मान मनौव्वल, झूमा-झटकी
बरजोरी, करजोरी और मुँहजोरी
तभी तक, जब तक
इस वैभवशाली ह्रदय का
एकछत्र साम्राज्य तुम्हारे नाम है
जिस दिन यह रियासत हार जाओगे
विस्थापित होकर कहाँ जाओगे?
फिर हम कहाँ और तुम कहाँ
सुनो ऋतुराज
हर नगरी की हर चौखट पर
पी की बाट जोहती सुहागिने
मुझ जैसी अभागन नही होती
खोने को सुख चैन
पाने को बेअंत रिक्त रैन
सुख की अटारी और दुख की पिटारी
अब दोनो तुम्हारे नाम
कभी फुरसत में करना हिसाब
मेरे हिस्से क्या और तुम्हारे जिम्मे क्या

सुनो ऋतुराज!
प्रीत के प्रपंच मे
छल को जायज कहा जिसने
वह स्वयं के हाथों छला गया होगा
आनन्द तो तब आए
आंसूओं की बून्द गिरे
और घाव पर नमक की परत चढ जाए
इस नमक का स्वाद
निसन्देह उसने नही चखा होगा
सुहागन के सिन्दूर से उसकी कमीज
नहीं हुई होगी लाल

सुनो ऋतुराज
इस ब्याहता ने सिन्दूर से होली खेली है
कहीं भी जाओ
कभी भी आओ

एक बात याद रखना
अपनी कमीज

झक्क सफेद रखना। ...................... ग़ुल सारिका

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 23, 2013 at 5:29pm


''हर नगरी की हर चौखट पर
पी की बाट जोहती सुहागिने
मुझ जैसी अभागन नही होती''

…बहुत ख़ूब कही आपने

''प्रीत के प्रपंच मे
छल को जायज कहा जिसने
वह स्वयं के हाथों छला गया होगा''
….बहुत लाज़वाब …सुन्दर

अनमोल शब्दों से सजी लाज़वाब रचना
Comment by Shyam Narain Verma on July 23, 2013 at 4:27pm
वाह ! आदरणीया बहुत ही सुन्दर भाव ///हार्दिक बधाई स्वीकारें ........... 

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