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बहुत देर से 

धूप ही धूप  थी 

दूर तक

कोई दरख्त नहीं 

जिसकी छाँव तले मै 

आ जाऊं !

बहुत दिनों से

कंठ  सूखा था

दिनों तक कोई

लहर नहीं

जिसे जी भर मै

पी जाऊं !

कई जेठों  से

स्वेद की कितनी बूंदें

माथे छलछलाती थीं

कब शीतल पुरवाई में

समा जाऊं !

आ जाओ

बस आ ही जाओ

मेरी जिन्दगी 

छाँव, तृप्ति और श्वास

मेरी तुम !

-जीतेन्द्र 'गीत'  

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 30, 2013 at 7:08pm

आदरणीया प्रियंका जी, 

आपने रचना को सराहा, लेखन कर्म को सफलता मिली ,आपका बहुत बहुत आभार

सादर!!

Comment by Priyanka singh on July 30, 2013 at 6:13pm

आ जाओ

बस आ ही जाओ

मेरी जिन्दगी 

छाँव, तृप्ति और श्वास

मेरी तुम !

सुन्दर......लाजवाब ....बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 30, 2013 at 10:57am

आदरणीय सौरभ जी,

मेरा पाठक से रचनाकार  हो जाना , मुझे भी उतना ही आश्चर्य चकित कर रहा है ......

मैंने कभी नही सोचा था की मै कविता लिख भी सकूँगा,  मै जब से ओ बी ओ परिवार में जुडा हूँ , साहित्य से लगाव हो गया, मैंने बतौर पाठक , रचनाकारों की रचनाओं का पठन किया, जैसे रचनाकर अंतर्मन की गहराइयों में जाकर रचना को इक रूप देता है, वैसे ही उस रचना का भाव समझने के लिए , पाठक को भी उसी गहरे तल तक जा कर मनन करना होता है, ओ बी ओ के रचनाकारों से प्रेरणा पाकर मैंने एक रचना लिखी जो की आपके सामने है, मन में संकोच था, प्रकाशन को दूँ या न दूँ  फिर ओ बी ओ के ही सदस्य एक सम्मानीय रचनाकार ने मेरी रचना को पढ़ा और कहा-"अरे वाह, ये आपकी प्रथम रचना है? प्रथम दृष्टया विश्वास ही नही होता|" और मुझमे इतनी उर्जा भर दी की, की ये रचना मैंने आप सब के सम्मुख रख दी|

सादर 

  

Comment by Ketan Parmar on July 26, 2013 at 5:46pm

आप साथ देंगे ,अवश्य सीख जाऊंगा, भाई जी

aapke is comment par maine kaha tha ke main nahi sikha sakta kisi ko.

kyuki main khud sikh raha hoo.

or apne kah diya ke aapse kisne kaha sikhane ko.

or ab main aage iss vishay me koi charcha karna nahi chahtaa aap acche lekhak hai kripyaa mujhe maaf kare main bahut bada agyani hoo.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:09pm

आदरणीय केतन जी! 

आपने एक तरफ के ही सम्वाद लिखे, जो गलतफहमी पैदा करते है, पहले तो आपने ही कहा था की की "मै सिखाने नही आया हूँ", तिस पर मैंने निवेदन किया था की, अधूरापन बता दीजिये, ताकि मै उसे पूर्ण कर दूँ, और आपने इसे पब्लिकली कर दिया,,, अगर आप रचना में कमी नही बता सकते तो आपको नये रचना कार का हौसला बढ़ाना चाहिए,, खैर .... मुझे सीखना है, इसलिए मै सीखूंगा|  

आपने रचना को समय दिया,, आभार

सादर            

Comment by Ketan Parmar on July 26, 2013 at 4:28pm

main aapka manobal todna nahi chahta hoo magar jab baat aap yaha karna chahte hai toh main aapke msg ko yah rakhnaa chunga aapne likha tha aap jante kya hai or aapse kisane kaha sikhane ke liye.

pahli baat main yaha par kisi ko sikhane ke liye nahi aayaa hoo, main khud sikh raha hoo.

aur aapki kavitaa acche bhaav se sampurn hai jeet bhai, magar aapne mere comment ka galat matlab nikaala adhurepan se meraa ashay tha ke kavita me or kuch add hota jaise saavan me kya kya hota hai prem prasang or woh sab toh or bhi jyaada nikhar aataa magar kher meri inn baat se koi matlab nahi hai aap sarvagya hai bhai ji

Saadar

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 4:22pm

// Magar na jane kyu mujhe kuch kami mehsus ho rahi hai //

// rachna sampurn hai // ........ आदरणीय केतन जी, मेरी प्रथम कविता रचना थी, बस कुछ और नही आपका "अधूरेपन वाला कमेन्ट" देख कर अपनी गलतियों की ओर इशारा चाहा था, आपने तो स्टेटमेंट ही बदल दिया आदरणीय. मेरा मनोबल टूट रहा है ........     

Comment by Ketan Parmar on July 26, 2013 at 4:07pm

rachna sampurn hai

Comment by वेदिका on July 25, 2013 at 8:12pm

खूबसूरत और भावपूर्ण कविता,

सारगर्भित और पर्याप्त स्पेस घेरती हुयी रचना,

अगर आप स्वयं नही कहें तो विश्वास नही आता कि, सचमुच आपकी प्रथम रचना है ये??

लेखन के शुभ पग को धरने के लिए शत शत शुभकामनायें!!!

     

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 25, 2013 at 7:50pm

आदरणीय आशीष भाई,

आपके उत्साह बर्धन के लिए , आपका बहुत बहुत आभार..

कृपया ध्यान दे...

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