अपरिचय, संवेदना है, भावना है ,
उसे क्या जो पुष्प से पत्थर बना है !
मिले उनको हर्ष के बादल घनेरे ,
एक बंजर-व्योम तो हम पर तना है !
चित्र है उत्कीर्ण कोई चित्त पर ,
ठहर जाती जहां जाकर कल्पना है !
सूर्य की ये रश्मियाँ बंधक बनीं हैं
एक अंधी कोठरी मे ठहरना है !
रास्ते अब स्वयं ही थकने लगे हैं
पूछता गंतव्य मन क्यों अनमना है ?
_______________________प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
डा. प्राची सिंह जी ,हार्दिक आभार आपकी सराहना का ,मेरा विनम्र निवेदन है कि इसे हिन्दी की विशिष्ट पहचान के रूप मे 'गीतिका' ही कहें हम ,हम उर्दू के नियमों की दुरूहता से अलग गीतिका (जो गज़ल जैसी है ,कुछ लोग इसे हिन्दी गज़ल भी कहते हैं ) एक पूर्ण स्वतंत्र शैली है जिसका प्रयोग बहुत दिनों से हो रहा है (आदरणीय कवि नीरज जी ने इसी शब्द का गज़ल की जगह प्रयोग किया है ),मेरी विवशता है कि मै गज़ल शब्द का प्रयोग इसके लिए नही करता हूँ ,सादर सादर,सस्नेह ______वि.शु.
आपका ह्रदय से आभार मित्र विजय मिश्र जी !
मेरे स्नेही मित्र सौरभ पाण्डेय जी ,आपकी टिप्पणी के लिए बहुत आभार ,सराहना के शब्द भी मधुर ,धन्यवाद ,मेरा एक निवेदन है इस सम्बन्ध मे -मेरी यह काव्य-विधा जो 'गीतिका' शीषक से है -नवगीत नही है(गीत तो प्रत्येक गेयऔर छंद-बद्ध रचना होती है ) ,यह हिन्दी की विशिष्ट और स्वतंत्र शैली है जो उर्दू की गज़ल के बहुत निकट है ,इसकी अपनी पहचान है ,यह पुरानी हिन्दी 'हरिगीतिका (छंद)" भी नही है ,मै उर्दू की गज़ल नही हिन्दी मे गीतिका ही लिखता हूँ पिछले कई दशक से / उर्दू की औपचारिक बंदिशों से अलग हिन्दी की अपनी इस गीतिका शैली को गज़ल जैसी कहा जा सकता है / कुछ लोग हिन्दी गज़ल शब्द का प्रयोग कर रहे हैं ,मै गज़ल शब्द का प्रयोग नही करता हूँ ,आदरणीय कविवर नीरज ने गज़ल के बजाय 'गीतिका' शब्द का प्रयोग किया है और इसी शीर्षक से रचनाएं लिखी हैं ,सबसे पहले उन्होंने ही इसे गीतिका कहा ,स्व.दुष्यंत कुमार ने अपनी रचनाओं मे हिन्दी की सहज ,सरल गज़ल को प्रस्तुत किया और उर्दू गज़ल की दुरूहता से इसे स्वतंत्र पहचान दी,मेरा विनम्र प्रयास है कि हिन्दी की इस विशिष्ट विधा को इसके ही रूप मे जाना जाए .यह कतई आवश्यक नही कि उर्दू के जानकार इसे गज़ल माने ,इसका यही स्वरुप जिसमे सहजता ,गेयता ,भाव-सम्प्रेषणीयता और प्रवाह है हमारी हिन्दी की गीतिका है ,सादर ______वि.शु.
आ० प्रो० विशम्भर शुक्ल जी,
आपकी बहुत सारी ब्लॉग रचनाएँ पड़ीं..सब बहुत ही संवेदनशील भावदशा को अभिव्यक्त करती हैं, 'गीतिका' शीर्षक के तहत लिखी सब ही रचनाएँ गज़ल के काफी करीब है.. यदि गज़ल का ही आवरण दें तो अभिव्यक्ति बहुगुणित हो निखर उठेगी.
सादर शुभकामनाएं
बहुत् अच्छी भाव-दशा के लिए बधाई, आदरणीय.
एक बात समझ में नहीं आयी कि आपने इस भाव-दशा को ग़ज़ल की शैली में क्यों बाँधा जबकि बह्र का निर्वहन नहीं करना था. नवगीत या गीत या कविता मेरी समझ से अधिक उचित माध्यम होतीं.
मतला को जिस लिहाज में संयत किया गया है वह पहले शेर के सानी के साथ ही बदल गया है. आगे के अश’आर में तो पूरी बह्र ही बदल गयी है.
हिन्दी भाषा की ग़ज़लों को लेकर बहुत कुछ कहा जाता रहा है. हम जैसे लोग सुनते-पढते रहते हैं. आपकी इतनी अच्छी कोशिश ऐसे लोगों को ही संतुष्ट कर रही है कि वे गलत नहीं हैं. मैं धृष्टता कर रहा होऊँ तो क्षमा कीजियेगा.
सादर
अपरिचय, संवेदना है, भावना है ,
उसे क्या जो पुष्प से पत्थर बना है !
वाह वा प्रो साहब बहुत सुन्दर भाव हैं ...
वाह आदरणीय बहुत ही सुन्दर क्या कहने //हार्दिक बधाई आपको
अति सुंदर !
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