(छंद - मनहरण घनाक्षरी)
गोमुखी प्रवाह जानिये पवित्र संसृता कि भारतीय धर्म-कर्म वारती बही सदा
दत्त-चित्त निष्ठ धार सत्य-शुद्ध वाहिनी कुकर्म तार पीढ़ियाँ उबारती रही सदा
पाप नाशिनी सदैव पाप तारती रही उछिष्ट औ’ अभक्ष्य किन्तु धारती गही सदा
क्षुद्र वंशजों व पुत्र के विचार राक्षसी सदैव मौन झेलती पखारती रही सदा
हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें
इस धरा को सींचती दुलार प्यार भाव से, गंग-धार संग जो कुछ किया सो क्या कहें
अमर्त्य शास्त्र से धनी प्रबुद्धता असीम यों, आत्महंत की प्रबल चाहना को क्या कहें
शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से
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--सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शरदिंदु जी, 'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से' पंचचामर छंद में लिखी गई है, सादर
शेष पथ घूर्णित प्रहर है
आकंठ दंश नव ज्ञान का
कौन है ? किसकी धमक से
नभ रुप धरता ध्यान का ?
ऋृंग चढ़ बैठा भगीरथ
बोतलें भर नीर से
धुंध के अवलंब पोषित
सुरसरि मन पीर से
आदरणीय आपकी इस रचना ने कई स्मृतियां ताजी कर दी । शाश्वत गंगा शाश्वत ही रहे यही कामना है, सादर
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ. |
आदरणीय सौरभ जी, आपकी प्रस्तुति के छंद ने वास्तव में मन मोह लिया. पढ़ते पढ़ते जयशंकर प्रसाद की कविता याद आ गयी...//हिमाद्रितुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती//....क्या आपकी कविता उसी छंद में लिखी गयी है? मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इस विषय में मेरा ज्ञान शून्य है....केवल पढ़ने के समय जो लय प्रतीत हुआ उसी आधार पर मैंने आपसे प्रश्न पूछा है. सादर.
वाह वाह सौरभ जी बहुत खूब
हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें
इस धरा को सींचती दुलार प्यार भाव से, गंग-धार संग जो कुछ किया सो क्या कहें
अमर्त्य शास्त्र से धनी प्रबुद्धता असीम यों, आत्महंत की प्रबल चाहना को क्या कहें
आदरणीय सौरभ सर .. नमस्कार
वाह !! गंगा की तरह प्रवाहमय मनहरण छंद .. सोचने को मजबूर करती साथ ही .. अपने धार में बहा ले गयी.. मेरी बधाई स्वीकार करें
आदरणीय गुरू जी आपकी रचना पर टिप्पणी कर पाने की सामर्थ्य तो मुझमे नहीं परन्तु इतनी धृष्टता अवश्य करूंगी आपकी रचना अत्यन्त मनोहरी है आपके मार्गदर्शन मे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा इसी विश्वास के साथ सादर ।.
गंगा मात्र एक नदी नहीं, हमारी आध्यात्मिक आस्था और दर्शन से जुडी अवधारणा है. काश प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हुए, मानव उनके प्रति संवेदनशीलता/ सजगता भी बरते. सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति समाहित किये हुए, एक संदेशपरक रचना. आभार इसे साझा करने के लिए.
हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें.....
कितना सुंदर प्रवाहमय छंद है! सचमुच मनहरन....पढ़ते पढ़ते लगा जैसे कोई मधुर श्लोक उच्चरित कर रहा हो, मन मुग्ध हो गया। आदरणीय सौरभजी, आपकी लेखनी को बारंबार नमन
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