भले ही आज जीवन में, तेरे कायम अँधेरा है
इसी दुनिया में ही लेकिन, कहीं रौशन सवेरा है
मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है
कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है
कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद न कहियेगा, ये चूहों का बसेरा है
न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है
अनुराग सिंह “ऋषी”
अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
आदरणीय अरुन शर्मा अनंत जी ह्रदय से नमन क़ुबूल करें साथ ही धन्यवाद भी
मुझे गज़ल का बहुत ज्यादा तकनीकी ज्ञान (अरूज़) नही पता बस अभी सीख रहा हूँ आप सभी का प्यार और आशीष रहा तो सफल भी हो जाऊंगा :-)
सादर
वज्न : १२२२, १२२२, १२२२, १२२२
बहर : हज़ज मुसम्मन सालिम
भाई बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है सभी अशआर जोरदार हुए हैं खासकर इन अशआरों हेतु विशेष तौर पर दाद कुबूल फरमाएं.
कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है
कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद तो न कहिये, ये चूहों का बसेरा है
न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है
कहीं कहीं कंटक त्रुटियाँ हैं उस पर अमल करें.
इसे संसद तो न कहिये ?
सीमाएं ? क्या एं की मात्रा घटा कर लघु किया जा सकता है .
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