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दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं

तमाम विसंगतियों के विरोध में एक ताज़ा ग़ज़ल .....


दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं 
फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं 

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का

अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

आरियाँ खुश थीं कि बस दो –चार दिन की बात है 
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं

 

उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में

दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं

 

बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया

साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं

 

है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार

आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

 

यूँ शहादत पर सियासत का नया फैशन दिखा

शोक जतलाने को नीली बत्तियाँ आने लगीं

 

हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ

बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं

 

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़

जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं

 

आज कह के कल मुकर जाने को सब तय्यार हैं

शाइरों में भी सियासी खूबियाँ आने लगीं

 

उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें

और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं  



- वीनस केसरी 
मौलिक व अप्रकाशित 

 

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Comment by कल्पना रामानी on May 7, 2013 at 9:38am

 

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का

अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

बहुत सुंदर, हर शे'र लाजवाब...

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on May 6, 2013 at 11:41pm

वाह वाह वाह,,,,,क्या ख़याल,,है,,,क्या काफ़ियॆ निभाये हैं,,,,,क्या शिल्प है,,,,,,गज़ब गज़ब,,,,,ऊपर वाले की विशेष कृपा है भाई साहब आप पर,,,,,,,,,,,, भाई दिल से मुबारकबाद आपको इतनी सुन्दर गज़ल साझा करने के लिये,,,,पुन: बधाई,,,,,,,

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