जीवनशैली
उन्हीं रास्तों पर चलते चलते
ना जाने क्यूँ मन उदास हो गया
सोचने लगी दिखावों के चक्कर में
जीवन कितना एकाकी हो गया
संपन जीवनशैली के बावज़ूद
इसमें सूनापन भर गया है
मैंने ड्राईवर से कहा –
क्या आज कुछ नया दिखा सकते हो
जो मॉल या क्लबों जैसी मशीनी ना हो
जहाँ जिंदगी साँस ले सकती हो
जो अपने जहाँ जैसी लगती हो
ड्राईवर बोला –
मैडम है एक जगह ऐसी
पर वो नहीं है आपके स्टैण्डर्ड जैसी
वहां हम जैसे छोटे लोग ही जाते हैं
और अपनी दिनभर की थकन मिटाते हैं
मैंने कहा –बताओ तो सही
छोटा बड़ा होता कुछ नहीं
वो बोला – गाँव में लगा है ‘मेला’
‘मेला’ सुनते ही मैं खो सी गई
फ़िरकी-गुब्बारे-झूले , खील-बताशे-लई
मुझे खोया पाकर ड्राईवर बोला
मैडम मैं तो यूँ ही मुहँ था खोला
मेला भी कोई देखने की चीज़ है इस ज़माने में
मैं बोली ऐसा ही तो कुछ देखना है
मुझे इस उदास आलम में
ड्राईवर ने गाड़ी आगे बढाई
और मेले के सामने जा लगाई
वहां पहुँच कर लगा जैसे बहुत दिन बाद
अपनी सी एक जगह मैं आज आ गई
मेरी उदासी मुझे छोड़ जाने कहाँ भाग गई
वो आम आदमी की जगह थी
वहां लोगों की अच्छी खासी तादाद थी
पर कोई अव्यवस्था या धक्कामुक्की नहीं थी
हर और खुशियाँ ही खुशियाँ नज़र आ रही थी
किसी के चेहरे पर भी गमी नहीं झलक रही थी
छोटे बड़े बच्चों का हाथ पकडे
परिवार के परिवार घूम रहे थे
और घूमते घूमते जीवन के हर रंगों का
लुत्फ़ वो अभिभूत हो उठा रहे थे
और मुझे जिंदगी का जीवंत उदाहरण दिखा रहे थे
मैं भी गन से गुब्बारे फोड़ती हुई
बॉल से गिलास गिरते हुई
इन खेलों का मज़ा लेती हुई
ना जाने कब रोज़मर्रा के
तनाव से मुक्त हो गई
मैं सोचने लगी क्यूँ हम दिखावों के चक्कर में
सरल ज़िन्दगी को इतना ग़मगीन बना लेते हैं
और जीवन के हसीं पलों को जीना भूल जाते हैं
इन दिखावों से उपर उठकर अपनी ज़मीं से जुड़कर
देखिये तो सही आपसभी भी तरोताज़ा हो जायेंगे
अपने कदम बढ़ाओ तो सही , कदम बढ़ाओ तो सही
विजयाश्री
२२.०१.२०१३
Comment
बृजेश कुमार सिंहजी
रचना संज्ञान के लिए आभार .
भविष्य में आपके सुझाव पर अमल करने की कोशिश रहेगी .
विजयाश्री
संदीप कुमार पटेलजी
आभार् !
विजयाश्री
कुंती जी
रचना संज्ञान के लिए शुक्रिया
भविष्य में आपकी सलाह पर अवश्य गौर करुँगी
आभार
विजयाश्री
डॉ प्राची
आभार .
आपके शब्दों से साहित्यिक मनोबल मिला है ....कोशिश जारी है
आशा है भविष्य में भी आप रचनाओं पर इसी प्रकार स्नेह बनाये रखेंगी
विजयाश्री
रचना के भाव, कथ्य, सन्देश की सबके हृदय में हामी भारती इस अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया विजयाश्री जी
सच में रचना पढते पढ़ते मैं भी मन ही मन स्मृतियों में बसा गाँव का एक अलबेला मेला घूम आयी :))
लेकिन काव्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रस्तुतीकरण की बात करें तो रचना बहुत समय मांगती है..
कम से कम शब्दों में कथ्य को गहनता से कहने का यदि प्रयास हो तो अतुकांत शैली में शब्द भाव सांद्रता अपने प्रभाव में पाठकों को बाँध लेती है...
रचनाकर्म में इसी कथ्य भाव सांद्रता की कोशिश कीजियेगा..
शुभेच्छाएँ
विजयश्री जी आपने इस आपाधापी भरी जिंदगी को उकेरते हुए सुकून की तलाश में नायिका को एक मेले में तो ले जाती है .लेकिन पाठक को सूकून दिलाने में असफ़ल रही.कहीं कहीं भाव अस्पष्ट है .शब्दों की भरमार के साथ ही गद्य -पद्य एक सी हो गयी है.आप एक पाठक की दृषिट से देखें...आप स्वयम विदुषी है . आप अन्यथा न लें .धन्यवाद .
सुन्दर भाव पिरोये हैं आपने इस रचना में उसके लिए बधाई
इस शहर की आपाधापी से ऊब गए तो गाँव के मेले ने सुकून तो दिया
आदरणीया बहुत सुन्दर रचना! बहुत सुन्दर भाव पिरोए हैं आपने! वास्तव में दिखावे से दूर सरलता में जीवन का जो रस है वह अन्यत्र कहां? बधाई स्वीकारें।
मैं साहित्य का छात्र ही हूं अभी बहुत ज्यादा तो नहीं जानता लेकिन एक बात आपसे साझा करना चाहता हूं कि नई कविता में भी वाक्यों का बहुतायत प्रयोग हालांकि अब चलन हो गया है। लोग कविता लिखते समय वाक्यों को ही कविता के रूप में पिरो देते हैं। मेरे विचार से ऐसा नहीं होना चाहिए।
एक बात आपसे कहना चाहूंगा कि कृपया कविता लिखने के बाद एक बार उसे एडिट जरूर कर लिया करें। यह कविता कुछ अधिक लम्बी हो गयी है। यह मेरा सुझाव मात्र है। इसे अन्यथा न लें। अपना मन्तव्य भी मुझे स्पष्ट करने का कष्ट करें।
सादर!
आ0 विजयाश्री जी, ’इन दिखावों से उपर उठकर अपनी ज़मीं से जुड़कर
देखिये तो सही आपसभी भी तरोताज़ा हो जायेंगे’ बहुत सुन्दर। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया, बहुत सुंदर विचार. ज़िंदगी के मेले को उसके असली और भूले हुए रूप में दिखाने का आपका प्रयास सराहनीय है......बाकी मैं और क्या कहूँ- विद्वतजन ही बताएँ....
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