आँख जैसे लगी, ख़ाक घर हो गया
जुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया ।
कुछ दरिन्दों ने ऐसी मचाई गदर
खौफ की जद में मेरा नगर हो गया ।
थी किसी की दुकाँ या किसी का महल
चन्द लम्हों में जो खण्डहर हो गया ।
है नजर में महज खून ही खून बस
आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।
थी ख़बर साजिशों की मगर, बेखबर !
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया ।
कौन सहलाये बच्चे का सर तब 'सलिल'
जब भरोसा बड़ा मुख़्तसर हो गया ।
------ आशीष 'सलिल' (हैदराबाद)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया वेदिका जी !
आदरणीय विजय सर......
आपको ग़ज़ल अच्छी लगी
तहे दिल से शुक्रिया |
है नजर में महज खून ही खून बस
आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।
बहुत खूब आशीष नैथानी 'सलिल' जी !
जिस घटना को केन्द्रित किया है, भयावह है वह, काश समझने वालों को समझने में आये यह बात या नासंझने वालों को।
शुभकामनाये
सादर वेदिका
आदरणीय आशीश जी,
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
सादर,
विजय निकोर
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय अभिनव जी....
धन्यवाद आदरणीय पवन जी.... गजल पसंदगी के लिए तहे दिल से शुक्रिया विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी.....
है नजर में महज खून ही खून बस आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।
दर्दनाक हादसे पर केन्द्रित असरदार ग़ज़ल . हर शेर सोचने को विवश करता है . काश आवाज़ उन तक पहुंचे ...
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया ।......
बहुत खुबसूरत अंदाज़ है आपका
तहे दिल से शुक्रिया भाई सन्दीप जी...
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