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बह रही थी एक नदी मेरे सपने में
रह गयी फिर भी प्यासी सपने में

जी रही थी इस दुनिया में मगर
देखती थी दूसरी दुनिया सपने में

करती थी इंतेजार उसका दिनभर
आता था जो आंसू पोछने सपने में

यकीन था आएगा वो पूरा करने
कर गया था वादे, जो सपने में

ढूढती हूँ एक वही चेहरा भीड़ में
बस गया था अक्श जिसका सपने में

काश ।अब सूरज ना निकले कभी
'शुभ' देखती रहे हरवक्त उसे सपने में

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Comment

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Comment by shubhra sharma on January 11, 2013 at 8:50pm

आदरणीय विजय निकोर साहेब सराहना हेतु धन्यवाद 

Comment by vijay nikore on January 11, 2013 at 7:32pm

शुभ्रा जी,

मार्मिक भावनाएँ अच्छी लगीं।

विजय निकोर

Comment by Anwesha Anjushree on January 11, 2013 at 6:55pm

Sunder prayas..prem se ot prot...achhi rachna

Comment by shubhra sharma on January 11, 2013 at 5:56pm

आदरणीय प्रदीप जी को धन्यवाद 

Comment by shubhra sharma on January 11, 2013 at 5:55pm

डा प्राची जी को हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 11, 2013 at 4:03pm

रुला के गया सपना मेरा 

बहुत सुन्दर भाव युक्त रचना 

बधाई,

आदरणीया शुभा  जी

सादर  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 11, 2013 at 3:46pm

मासूम से भाव समेटे इस रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रिय शुभ्रा जी 

कृपया ध्यान दे...

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