इक ग़ज़ल पेशेखिदमत है दोस्तों
उड़ गयी चिड़िया सुनहरी क्या बसेरा हो गया
देखते ही देखते बाजों का डेरा हो गया
कुर्बतों में मिट गयी तहजीब की दीवार यूँ
आपका कहते थे जो अब तू औ तेरा हो गया
कागजी टुकड़े खुदा हैं और उनके नूर से
बंद हैं आँखें सभी हरसू अँधेरा हो गया
जुर्म भी होते न दिखता बेसदा है चीख भी
क्या सड़क में इस कदर कोहरा घनेरा हो गया
पंछियों का शोर सुनके "दीप" अक्सर सोचता
शाम अब ढलने लगी है या सबेरा हो गया
संदीप पटेल "दीप"
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उड़ गयी चिड़िया सुनहरी क्या बसेरा हो गया
देखते ही देखते बाजों का डेरा हो गया
जुर्म भी होते न दिखता बेसदा है चीख भी
क्या सड़क में इस कदर कोहरा घनेरा हो गया
नमस्कार संदीप जी ,
आप बहुत अच्छा लिखते है हमेशा से .. और प्रस्तुत गजल भी आज के सन्दर्भ में बहुत खूब लिखा है , बधाई आपको
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