For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

अर्द्धनास्तिक (लघुकथा)

आस्तिक के आ को ना में बदलने में उसे काफी वक़्त लगा था, ऐसा होने के लिए सिर्फ विज्ञान का विद्यार्थी होना ही सबकुछ नहीं होता। कई बार उसने खुद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान पत्रों को जर्नल्स में प्रकाशित होने के लिए भेजते समय, कभी गणेश, कभी जीसस तो कभी वैष्णोदेवी की तस्वीरों के आगे आँखें मूँदते देखा था। कुछ उसका मनन था, कुछ चिंतन, कुछ किताबें, कुछ संगत और कुछ दुनिया से उस अलौकिक शक्ति की ढीली पड़ती पकड़, जिन्होंने मिलजुलकर उसे दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही इंसानी उपप्रजाति 'नास्तिक' बना दिया था।
कल शाम जब वह जिम पहुंचा तो अत्याधुनिक व्यायाम मशीनों के बीच उसने खुद को अकेले पाया, कारण था कि आज वह थोड़ा जल्दी आ गया था। इससे पहले कि वह अपनी सारी एक्सरसाइज निपटाता उसने हॉल में किसी और को आते देखा। आने वाली एक स्थानीय गोरी लड़की थी। वह पहले से थोड़ा अधिक सतर्क दिखने लगा और चारों ओर की दीवारों में जड़े आइनों में से एक के सामने अपनी व्यायाम कुर्सी जमाकर बैठ गया, साथ ही बाहों के डोले मजबूत करने के लिए भारी डम्बलों को गिनती सिखाने लगा।
अचानक नज़र सामने गई तो जाना कि लड़की दो हल्के डम्बलों को हाथ में ले आगे की ओर झुककर व्यायाम कर रही थी। उसने लड़की के झुकने में अपना आनंद ढूंढ लिया और फिर जब भी वह आगे की तरफ झुकती वह सामने लगे आईने के सहारे चोर नज़रों से अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में लगा होता।
अचानक उसने महसूस किया कि कोई उसे देख रहा है। वह सकपका गया, पल भर को उसने डर महसूस किया। लड़की का ध्यान अभी भी उसकी तरफ न था, कमरे में भी कोई नहीं था, तभी उसे ध्यान आया कि वह आईने के सामने बैठा है। वह विद्रूप हंसी हंसने को हुआ, लेकिन एकाएक वह अपना पहचान पत्र और पानी की बोतल समेटता हुआ वहां से बाहर निकल गया।

दीपक मशाल 

Views: 451

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dipak Mashal on December 14, 2012 at 12:23am

सहमत हूँ प्राची जी, धर्मेन्द्र भाई शुक्रिया। 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 12, 2012 at 6:13pm

GOD CAN FORGIVE ANY SIN BUT OUR CENTRAL NERVOUS SYSTEM CAN NOT.....

दीपक मशाल जी, इस लघुकथा को पढ़ कर यही भाव पुनः मन में आये सो जस के तस संप्रेषित हैं.मन में आस्तिकता- नास्तिकता जड़ों को पर थाप देती इस लघुकथा के लिए बधाई.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2012 at 12:04am

अच्छी लघुकथा है दीपक जी, बधाई स्वीकार करें।

Comment by Dipak Mashal on December 11, 2012 at 7:48pm

बहुत-बहुत शुक्रिया सौरभ जी,
आप अन्यथा न लें, मैंने कहा भी है कि महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न इस साईट पर काफी समय से आना-जाना न हो पाया, जिससे मेरी ही हानि हुई, लेकिन अब होता रहेगा। ओ बी ओ का प्रयास न सिर्फ सराहनीय है बल्कि हम जैसे नवकलमधारकों के लिए एक वरदान की तरह है। आपकी क्रमवार बातों ने मेरा संबल ही बढ़ाया है।
आदरसहित
मेरी शुभकामनाएं


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 11, 2012 at 6:51am

पहली बात : भाई दीपकजी, आपका इस मंच में सक्रिय होना इस मंच का लाभ है.

दूसरी बात : भाईजी, आप यदि इस मंच की स्थापना से ही इससे सम्बद्ध हैं तो आपको अबतक यह विदित हो चुका होगा कि इस मंच के होने का अर्थ और हेतु क्या है.

तीसरी बात : कौन कहाँ क्या कर रहा है या किसका व्यक्तिगत झुकाव किस तरफ़ है से अलग और आगे साहित्य की बेहतरी कहाँ और कैसे है पर ध्यान कैसे देना है की समझ यह मंच विकसित करता हुआ आप जैसे सुधीजनों को दिखे तो यही इस मंच की प्रासंगिकता और दिशा है. आप अवश्य बेख़ौफ़ रहे हैं, यह आपका होनापन बताता है.

वीनसजी से हुए आपके संवाद सेविन्दुओं को लेकर .. .

अब लघुकथा पर : किसी ’संचालक’ के होने या न होने की आश्वस्ति ’बाहर’ से नहीं अपनी समझ से आती है. अंतरमन जो कुछ साझा करता है उसे एक शख़्स किस रूप में स्वीकारता है ही उसकी वैचारिक दृढ़ता को गढ़ती है.  इस लघुकथा का लिहाज बहुत पसंद आया, दीपक मशालजी.

हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

Comment by Dipak Mashal on December 11, 2012 at 1:52am

उम्मीद है कि यहाँ लोग 'बेख़ौफ़' होकर अपने अनुभव देते हुए, रचनाओं को बेहतर बनाने में मददगार होंगे। 

Comment by Dipak Mashal on December 11, 2012 at 1:49am

लघुकथा पर ध्यान देने के लिए शुक्रिया वीनस भाई, ओबीओ से मेरा जुड़ाव लगभग तभी से है जब से इसकी स्थापना हुई थी, लेकिन किन्हीं कारणों से इस पर न तो कोई पोस्ट लगा सका और ना ही ज्यादा किसी को पढ़ ही पाया। दूसरी तरफ अपने निजी ब्लॉग पर भी कभी-कभार जाकर गंगाजल उसके मुंह में डाल आता हूँ। कमेंट के कंचों के अदल-बदल का खेल मेरे वश का नहीं, खासकर जब वह सिर्फ आह-वाह तक सीमित हो। और वहां किसी को अपनी कमी गिनाओ तो तलवार-त्रिशूल निकल आते हैं। इस मंच से कुछ उम्मीद है और फिर जब आपने याद दिलाया है तो दरबार में हाजिरी लगती रहेगी।

Comment by वीनस केसरी on December 11, 2012 at 12:25am

वाह !
दीपक भाई सबसे पहले तो आपका हार्दिक स्वागत है 
आपको यहाँ देख कर बेहद खुशी हुई

निश्चित ही आपके बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व से यह मंच समृद्ध होगा

आपकी लघु कथा पढ़ कर फैज़ साहब का एक शेअर याद हो आया ....

वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था.
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है.

निश्चित ही आस्तिक पूर्ण रूप से आस्तिक नहीं होता और नास्तिक पूर्णरूपेण नास्तिक नहीं हो सकता


अंत बेहद शानदार रहा ....
बधाई

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

आशीष यादव added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला पिरितिया बढ़ा के घटावल ना जाला नजरिया मिलावल भइल आज माहुर खटाई भइल आज…See More
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service