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अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा

                                                                      

                                                                      

तुम शीतल, ग्रीष्म, उभय तापी;

तुम  बहुप्रकार, तुम  बहुरंगी !

हो  रंग, रूप  व  ताप  कोई,

पर थकित जनों की हो संगी !

हो जग के हित में तत्पर तुम, तुममे क्यों दोष बताऊंगा !

                                                      अमृत   समान  हे  चाय  मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !

 

लगभग  दुनिया  में  छाई  तुम,

इक  नाम  नया, कुछ रूप नया !

भारत  में   तो   पाया  तुमको,

जिस राज्य, नगर या गाँव गया !

हे विश्वव्यापिनी प्राणप्रिये, छोड़ तुम्हे कहाँ जाऊंगा ?

अमृत समान हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !

 

इक  रूप  तुम्हारा  विकृत  सा,

जिसको  कि कहते काढ़ा लोग !

खांसी,   सर्दी   याकि   सरदर्द,

होते   इससे  खत्म  ये  रोग !

हे सुलभ औषधी जीवन की, क्योंकर तुमको बिसराऊंगा !

अमृत  समान  हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !

 

पर  जग ये बड़ा कृतघ्नी है,

उपकार  नहीं   कोई माने !

कहता, करती तुम देह हानि,

दुर्गुण  तुममे  झूठ बखाने !

 पर  हे  सुस्वादे! मै मन से, सच गुण  तुम्हारे गाऊंगा !

 अमृत  समान  हे चाय मेरी, मै तुमको भूल न पाऊंगा !

                                                                                        -पियुष द्विवेदी ‘भारत’

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Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on December 14, 2012 at 10:31am

आदरणीय राजेश कुमारी जी, साभार  धन्यवाद !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 14, 2012 at 10:28am

आह ह्ह्ह चाय इस सर्दी में और आपका चाय की प्रशंसा में ये गीत किसे पसंद नहीं आएगा इस वक़्त तो इस गीत की हर बात सच्ची लग रही है बहुत पसंद आया ये गीत बधाई आपको 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on December 14, 2012 at 10:22am

धन्यवाद आदरणीय सीमा जी, सुझावों पर ध्यान देते हुवे, त्रुटियों के सुधार का हर संभव प्रयास करूँगा !

Comment by seema agrawal on December 14, 2012 at 10:13am

चाय के प्रेम में डूबे प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की अच्छी स्तुति प्रस्तुत की है नया कथ्य जिसकी निश्चित ही सभी प्रशंसा करेंगे ही मैं भी बधाई देती हूँ 
 अब यदि शैली की बात करें तो वह भी बहुत खूब  ३२-३२ मात्राओं के पहियों पर सफ़र करता आपका गीत  संतुलित ढंग से प्रयाण कर रहा था |पर अचानक शायद शब्द और भाव रूपी मोह के काँटों ने पहियों के असंतुलित कर दिया  और  शिल्प को बिगाड़ दिया अपनी इन पंक्तियों पर दृष्टि डालिए एक बार फिर 

//हे विश्वव्यापिनी प्राणप्रिये, छोड़ तुम्हे कहाँ जाऊंगा ?//

इक रूप तुम्हारा विकृत सा ,जिसको कि कहते काढा लोग 

खांसी सर्दी याकि सरदर्द होता इससे ख़त्म ये रोग 

कहता करती तुम देह हानि दुर्गुण तुमने झूठ बखाने 

पर हे सुस्वादे  मैं मन से सच गुण तुम्हारे गाऊँगा 

bold की हुए पंक्तियों को यदि मेरी बात ठीक लगे तो एक बार फिर से देख लीजिये ...

शुभकामनाएं 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 29, 2012 at 8:43am

आदरणीय रक्ताले जी, बेशक विज्ञान ने भी अब चाय की संप्रभुता (गुणवत्ता) को स्वीकार कर लिया है, पर फिर भी अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो हाथ में चाय का कप लिए हुवे ये सलाह देते हैं कि चाय, सेहत के लिए हानिकारक होती है !

Comment by Ashok Kumar Raktale on November 19, 2012 at 7:13pm

पियूष जी 

            सादर, कोई देह हानि नहीं भाई अब तो विज्ञान भी कहता है चाय से त्वचा खिली खिली रहती है. बहुत सुन्दर रचना. हार्दिक बधाई.

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 18, 2012 at 2:47pm

सादर धन्यवाद रणवीर भाई......!

Comment by Ranveer Pratap Singh on November 17, 2012 at 7:34pm

@ पियुष द्विवेदी 'भारत'वाह अति सुन्दर रचना, हमारे भोपाल शहर में एक कहावत है की प्राण जाए पर चाय न जाए... चाय हमारे देश का राष्ट्रीय पेय घोषित होने वाला है २१ अप्रैल २०१३ को... एक बार फिर बधाई... 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 17, 2012 at 7:01pm

शुक्रिया आदरणीय प्रदीप जी....

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 17, 2012 at 3:07pm

चाय तो लाभकार है 

मुझे लगती प्यारी 

पियूं न जब तक इसे 

छायी रहे खुमारी 

बधाई, चाय दर्शन हेतु.

कृपया ध्यान दे...

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