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दास्ताँ है यें जीव की

दास्ताँ  है यें जीव की

वस्त्र ढ़के, मृत शरीर की

वृद्ध होते ही छोड़ चलें

नींव लिखने, नई तकदीर की

 

प्रीती जाती जब, हृदय जग

दो तनो कर, एक मन

बीज से जाता पराग बन

भू धरा पर ले जन्म

पंचतत्वो का कर संगम

पाया जग में मानव तन

 

शिशु से किशोर तक

रूप बनाया मन भावन

अटखेलियाँ कर कर के

हर्षित करता सबका मन

शिक्षा का वो कर अध्ययन

ज्ञान से करता जग रोशन

 

अध्यन का समय हुआ ख़त्म

युवा अवस्था में बढ़ा कदम

घर परिवार के सारे अक्ष

उसके आते अब समक्ष

कमाने का अब स्रोत बना

गृहस्त जीवन में बढ़ा कदम

 

धर्म बेटी बेटे का निर्वाह कर

मात पिता की सेवा कर

कर्तव्य के अपने पालन में

चित को अपने नियंत्रित कर

कर्म धर्म का मूल्यांकन कर

वानप्रस्त में प्रस्थान कर

इस तन को फिर जाता छोड़

प्राणों को अपने त्याग कर

 

यात्रा है ये जीव की

वस्त्र ढ़के, शरीर की

कालचक्र का चक्रा घूमे

नींव रखने फिर एक

नई तकदीर की

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 12, 2012 at 7:54am

जीवन-चक्र को साझा करना अच्छा लगा. बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 11, 2012 at 2:54pm

सम्पूर्ण जीवन चक्र को समेटे हुए सुन्दर भाव प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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