सौरभ जी से चर्चा के पश्चात जो परिवर्तन किये हैं उन्हें प्रस्तुत कर रही हूँ
परिचर्चा के बिंदु सुरक्षित रह सके इस हेतु पूर्व की पंक्तियों को भी डिलीट नहीं किया है जिससे नयी पंक्तियाँ नीले text में हैं
गीत मे तू मीत मधुरिम नेह के आखर मिला
प्रीत के मुकुलित सुमन हो भाव मे भास्वर* मिला -----*सूर्य
हो सकल यह विश्व ही जिसके लिए परिवार सम
नीर मे उसके नयन के स्नेह का सागर मिला
पी लिया जिसने हलाहल बन के मीरा की तरह
ऐसी भक्ति से स्वयं फिर आ के वो गिरधर मिला
पी लिया जिसने हलाहल बन के मीरा बावरी
प्रेम की ऐसी ऊँचाई पर स्वयं ईश्वर मिला
है सबल या है निबल मत सोच रेखा भाग्य की
लक्ष्य बस उसको मिला जो कर्म मे तत्पर मिला
है सबल या है निबल मत सोच रेखा भाग्य की
लक्ष्य तो वो भेदता ,जो कर्म मे तत्पर मिला
क्या गज़ल क्या गीत क्यों इस बात पर चर्चा करें
जो हरें पीड़ा ह्रदय की तू वही अक्षर मिला
ढूंढ के थक जाएगा काबा ओ काशी एक दिन
वो है भीतर स्वयं के बाहर कहाँ ईश्वर मिला
टूटते जिन स्वप्न को दरकार है आधार की
आ तू उनकी नींव मे विश्वास के पत्थर मिला
कैद मे थे वक्त की जो कामनाओं के विहग
उड़ चले जैसे ही बंधक आस को अम्बर मिला
Comment
आदरणीय सौरभ जी,
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका
अधिकतर रुक्नों में मात्राओं का योग बराबर होने से यह बहर हरिगीतिका की तरह ही लगती है
परन्तु उर्दू बहर से हरिगीतिका का वास्तविक मेल निम्न प्रकार से है
जिस पंक्ति के आदि में दो लघु हों वहाँ ........
मुतफ़ायलुन् मुतफ़ायलुन् मुतफ़ायलुन् मुतफ़ायलुन्
जिस पंक्ति के आदि में गुरु हो वहाँ .........
मुस्तफ्यलुन् मुस्तफ्यलुन् मुस्तफ्यलुन् मुस्तफ्यलुन्
सादर
//भक्तिन लिख कर आपने स्वयं ही मुस्कुरा कर उसे निरस्त कर दिया//
एकदम नहीं, सीमाजी. वह स्माइली वस्तुतः आपसे अनुमोदन की अपेक्षा में थी. अपनी बात को कह पाने की प्रसन्नता में थी.
दूसरे, समझ नहीं पाया कि कोई इसे ग़ज़ल क्यों न कहें? यह रचना विशुद्ध हिन्दी गज़ल है, इसमें दो राय नहीं. तभी उक्त पंक्ति की तक्तीह करने का सुझाव दिया था. मिसरे के बह्र का वज़्न २१२२ २१२२ २१२२ २१२ है और बह्र का नाम है बहरे रमल मुसमन महजूफ़. अब यह भी जानना और देखना रोक होगा कि यह छंद हरिगीतिका से कहाँ और कितना साम्य रखती है .. :-)))
फिर स्माइली !!?? .. हे भगवान .. :-))))
बहुत- बहुत आभारी हूँ सीमा जी एक नए शब्द से परिचय कराया
आदरणीय राजेश जी सराहना के लिए आभारी हूँ आपकी
यह प्रश्न मेरे पास आना ही था .....सूर्य के लिए सर्वाधिक प्रचलित पर्याय भास्कर ही है पर भास्वर भी सूर्य का पर्याय है और काव्य में प्रयुक्ति के लिहाज़ से खूबसूरत भी ......मुझे पता था की इस शब्द से शायद कम लोग परिचित हो इसलिए साथ में अर्थ भी दिया है
भास्वर :सूर्य, सन्दर्भ (१)बृहद हिंदी शब्दकोश द्वारा डाक्टर श्याम बहादुर वर्मा
...........................(२)हिंदी पर्यायवाची कोश द्वारा डाक्टर भोलानाथ तिवारी .........सादर
इस खूबसूरत गीत उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए प्रशंसा के शब्द कम होंगे ---पहली द्विपदी की द्द्सरी पंक्ति में सूर्य को आपने जो भास्वर शब्द दिया है उस पर गौर करें आपने भास्कर की जगह गलती से तो नहीं लिख दिया क्यूंकि भास्वर मैंने सूर्य के लिए आज तक नहीं पढ़ा कृपया मेरे संशय का निवारण करें |
सौरभ जी ,,,,,,,,भक्तिन लिख कर आपने स्वयं ही मुस्कुरा कर उसे निरस्त कर दिया .....
यह रचना क्या गज़ल नहीं कही जायेगी ,क्या गज़ल के लिहाज़ से इसमे कुछ कमी है ?मैने तो गज़ल में जो मात्रा गिराने -उठाने के नियम हैं उन्ही का फायदा लेना चाहा था
पर जैसा आपका //अनुरोध : // उसके अनुसार कुछ और परिवर्तन करके देखती हूँ
आपका दूसरा सुझाव पुरूस्कार के रूप में ग्रहण कर रही हूँ ........बहुत खूब
लक्ष्य तो वह भेदता जो कर्म मे तत्पर मिला.......
अद्भुत ! इसके आगे इस संप्रेषण पर और कुछ कहना समीचीन नहीं, सीमाजी ..
आपकी यह प्रस्तुति हर तरह से समृद्ध है और इस मंच की अब तक की सफल कृतियों में से है.
एक अनुरोध :
ऐसी भक्ति से स्वयं फिर आ के वो गिरधर मिला कृपया इस पंक्ति की पुनः तक्तीह करें. भक्ति को आपकी रचनाओं में भक्ती पढ़ना असहज-सा प्रतीत हो रहा है. भक्ति को भक्तिन करें, फिर देखें .. :-)))
लक्ष्य बस उसको मिला जो कर्म मे तत्पर मिला को क्या तनिक और संप्रेष्य बनाया जा सकता है --
लक्ष्य तो वह भेदता जो कर्म मे तत्पर मिला.
सादर
संदीप जी आप से भावों को सराहना मिली इसके लिए अत्यंत आभारी हूँ आपकी ....शुभकामनाएं
बहुत बहुत शुक्रिया अम्बरीश जी आपकी प्रतिक्रिया हमेशा आपके ज्ञान को और समझ को परिलक्षित करती है
सत्य की राहों में कंटक चल पड़ी पर यह ग़ज़ल.
भाव उन्नत शिल्प सुन्दर कथ्य भी बेहतर मिला.........आभार
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