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कविता का स्वरूप

जहाँ जोर ना चले तलवार का
जहाँ मोल ना हो व्यव्हार का
तब सन्देश का माध्यम बन
समस्या करती छू मन्तर
कभी प्रेम प्रसंग का ताना बुन
शब्द लाती मैं चुन चुन
व्याकुल हो जब कोई मन
अंकुश लगाती शंकित मन
सूचक दे छवि विषाद का
आन्तरिक सुख को करूं अपर्ण
वीर रस का जब
ब्खान हूँ करती
मुर्दों में भी जीवन भरती
शब्दों के मैं मोती बना
भावना ऐसी व्यक्त करती
नीरस जीवन में जब
रंग रस मैं भरती
संकोची हृदय की जब व्यथा सुनती
उन्मुक्त कहानी और किस्से सुना
पुलकित उनके हृदय करती
प्रकर्ति का श्रिंगार कर
कोकिला की तान पर
फूलो की मुस्कान पर
झूम झूम के घूम घूम के
नाच जो करती
कविता खुद-ब-खुद ही बनती
रिमझिम सी बरसात में
वसंत के हर्ष उल्लास में
कीर्ति का जब उसकी
कविता बन जब वर्णन करती
सबके मन को हर्षित करती
कविता का जब रूप मैं धरती

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 1, 2012 at 4:02pm

वास्तव में ऐसा लगता है कि यह कविता स्वतः ही बनी हो | सुन्दर अभिव्यक्ति पर बधाई फूल सिंह जी |

Comment by PHOOL SINGH on September 1, 2012 at 11:03am

राजेश कुमारी जी प्रणाम,

आपका बहुत धन्यवाद................

फूल सिंह

Comment by PHOOL SINGH on September 1, 2012 at 11:02am

रेखा जोशी जी प्रणाम,

आपका बहुत धन्यवाद................

फूल सिंह

Comment by Rekha Joshi on August 31, 2012 at 9:24pm

प्रकर्ति का श्रिंगार कर 
कोकिला की तान पर 
फूलो की मुस्कान पर 
झूम झूम के घूम घूम के 
नाच जो करती 
कविता खुद-ब-खुद ही बनती ,अति सुंदर भाव फूल सिंह जी ,बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 31, 2012 at 7:13pm

कविता के विभिन्न रूपों का सुन्दर वर्णन किया है बहुत खूब 

कृपया ध्यान दे...

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"   आदरणीय मिथिलेश जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार.…"
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"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर "
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