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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- २१

(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)

तगय्युर.....

 

ण्डहरों में पलने लगे हैं

तामीर के सपने.

उजड़ी बस्तियों में

फिर से कोर्इ खोल रहा है

ज़िन्दगी के ज़ख़ीरे.

वीरान घरों की दहलीज़ पे फिर से

आहटें बसने लगी हैं,

खामोश दरीचों से परदे

सरकने लगे हैं,

छत की चिमनियों से

धुओं का रेला

निकलने लगा है एक बार फिर.

ख़ामोश फ़ज़ाओं में

सय्यारों का झुण्ड

निकलने को है पहली उड़ान पे....

ज़िन्दगी शायद सोते से जागने वाली है।

 

© राज़ नवादवी

सोशल वर्क हॉस्टल, नई दिल्ली

(२८/०२/१९९३)

 

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Comment by राज़ नवादवी on July 3, 2012 at 10:34pm

अरुण साहेब, ज़रूर. आज के ज़माने की कृतियाँ भी ज़रूर पेश करूंगा. वैसे आजकल गज़लें ज़्यादा लिखीं जो इक अनजान शायर के कलाम के उन्वान से पोस्ट भी की हैं. मगर अभी बहुत कुछ है जो सिर्फ कागज़ के तहखानों में कैद हैं. वक़्त मिलाने पे ज़रूर साया करूँगा. आपका दिल से शुक्रिया.  

Comment by Abhinav Arun on July 1, 2012 at 2:17pm

ख़ामोश फ़ज़ाओं में

सय्यारों का झुण्ड

निकलने को है पहली उड़ान पे....

ज़िन्दगी शायद सोते से जागने वाली है।

बहुत बढियां श्री राज़ जी .. उन्नीस वर्षों पूर्व की आपकी लेखन कृति मोहित करती  है ... अब आज का परोसिये , हम उतावले हैं :-))

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