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बदनामियों की गठरी


//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती से चिपटी हुई दिखाई दे रही है. उसे देख कर सारी कायनात विव्हल हो उठी, अम्बर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी कि किसी तरह उसका दिल द्रवित हो और उसके पाँव वापस लौट आंए. पर उसे क्या पता कि ये तूफ़ान तो कुछ भी नहीं उससे बड़ा तूफ़ान तो कब से उसके ह्रदय में तबाही मचा रहा है धन से तो वो पहले से ही वंचित थी अब तन और मन से भी हो गई. बस किस्मत से लड़ना ही उसकी नियति बन चुकी थी अम्बर के ये आंसू क्या हैं उसके सम्मुख, जो उसकी आँखों और आँचल से विस्तृत सागर बह रहा है लगातार कर्ण पटल पर आघात करता ये शोर उसको उसकी बेइज्जती और मजबूरी का उपहास करता प्रतीत हो रहा है. और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार तार हुई थी को साक्षी मान कर रुक जाती है. उस झाड़ी की ओर जहां वो अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामियों की गठरी का बोझ उतार सके !!//

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 6, 2012 at 9:40am

उमा शंकर मिश्र जी बहुत बहुत बहुत हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 6, 2012 at 9:39am

बहुत- बहुत हार्दिक आभार योगराज जी त्रुटी को इंगित करने के लिए बस कुछ सामजिक घ्रणित घटनाओं से विह्वल मन के भावों को उकेरती चली गई इसको विशेषतया   कविता या पद का या कहानी का क्या रूप देना उस और ध्यान ही नहीं दिया चलिए अपेक्षित  सुधार कर देती हूँ |

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 5, 2012 at 10:20pm

गद्य को कविता में ढालने का अच्छा प्रयास

संक्षिप्त में दहसत पूर्ण  प्रकृति वर्णन के साथ

एक बड़ी कहानी को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की

बेबसी की  कहानी कहती प्रस्तुति

मर्मस्पर्शी


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 5, 2012 at 8:26pm

आद. राजेश कुमारी जी,

मैं कल से आपकी इस रचना को न जाने कितनी दफा पढ़ चुका हूँ. लेकिन इस में मुझे कहीं "कविता" तो नज़र ही नहीं आई. एक पैरा गद्य है, जिसको टुकड़ों में बाँट कर पद्य की शकल देने की कोशिश की गई है. मुझे तो ये किसी घटना के विवरण जैसा लग रहा है कविता हरगिज़ नहीं. कविता बेशक छन्दमुक्त ही क्यों न हो उसमे शब्दविन्यास की एक कला होती है, प्रवाह होता है, जो इस रचना से बिलकुल नदारद है.मैंने इसको दोबारा पैरे में बदला है, आप स्वयं पढ़कर निर्णय करें.

//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती से चिपटी हुई दिखाई दे रही है. उसे देख कर सारी कायनात विव्हल हो उठी, अम्बर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी कि किसी तरह उसका दिल द्रवित हो और उसके पाँव वापस लौट आंए. पर उसे क्या पता कि ये तूफ़ान तो कुछ भी नहीं उससे बड़ा तूफ़ान तो कब से उसके ह्रदय में तबाही मचा रहा है धन से तो वो पहले से ही वंचित थी अब तन और मन से भी हो गई. बस किस्मत से लड़ना ही उसकी नियति बन चुकी थी अम्बर के ये आंसू क्या हैं उसके सम्मुख, जो उसकी आँखों और आँचल से विस्तृत सागर बह रहा है लगातार कर्ण पटल पर आघात करता ये शोर उसको उसकी बेइज्जती और मजबूरी का उपहास करता प्रतीत हो रहा है. और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार तार हुई थी को साक्षी मान कर रुक जाती है. उस झाड़ी की ओर जहां वो अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामियों की गठरी का बोझ उतार सके !!//



सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 5, 2012 at 6:05pm

रेखा जोशी जी बहुत बहुत हार्दिक आभार रचना के मर्म ने आपको छुआ  

Comment by Rekha Joshi on June 5, 2012 at 6:03pm

राजेश जी ,हमारे समाज का भयानक चेहरा लिए हुए दर्दनाक रचना ,मन व्यथित हो उठा ,आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 5, 2012 at 5:58pm

आज कल के समाज की ये कुछ ऐसी कडवी सच्चाई हैं की किसी ना किसी माध्यम से रोज रूबरू होती हैं चिंतनीय विषय ये जरूर है पर अलबेला जी आप अपना हास्य बरकरार रखिये वो आपकी पहचान जो है एनी वे  हार्दिक आभार बहुत ख़ुशी हुई आपकी टिपण्णी पढ़कर 

Comment by Albela Khatri on June 5, 2012 at 5:48pm

आपने तो आज द्रवित कर दिया  राजेश कुमारी जी,
इतनी वेदना  और संवेदना  मन में भर दी आपकी इस अनुपम कविता ने  कि एक हास्यकवि भी गम्भीर हो गया .
बहुत बहुत साधुवाद आपको........


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 5, 2012 at 5:43pm

आशीष यादव जी आप सही कहते हैं ये एक घ्रणित सच्चाई का ही चेहरा है बहुतबहुत  हार्दिक आभार इस मर्म को महसूस करने के लिए 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 5, 2012 at 5:40pm

प्रदीप कुमार कुशवाह जी  हार्दिक आभार कविता की आत्मा को महसूस करने पर 

कृपया ध्यान दे...

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