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लघु कथा : हाथी के दांत 

बड़े बाबू आज अपेक्षाकृत कुछ जल्द ही कार्यालय आ गए और सभी सहकर्मियों को रामदीन दफ्तरी के असामयिक निधन की खबर सुना रहे थे. थोड़ी ही देर में सभी सहकर्मियों के साथ साहब के कक्ष में जाकर बड़े बाबू इस दुखद खबर की जानकारी देते है और शोक सभा आयोजित कर कार्यालय आज के लिए बंद करने की घोषणा हो जाती है | सभी कार्यालय कर्मी इस आसमयिक दुःख से व्यथित होकर अपने अपने घर चल पड़ते  है | बड़े बाबू दफ्तर से निकलते ही मोबाइल लगा कर पत्नी से कहते है "सुनो जी तैयार रहना मैं आ रहा हूँ, आज  सिनेमा देखने चलना है"

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on March 22, 2012 at 9:52am

बाग़ी जी, आपकी लघु कथा पढ़ कर आनंद आया. बहुत ही कसी हुई ओर चुस्त लघुकथा कही है. पूरी कहनी में एक भी शब्द कम या फालतू नहीं है जिसकी वजह से इसका रूप ओर भी निखरा है. आज के ई नसान की दोगली मानसिकता पर सटीक व्यंग करती इस लघुकथा के लिए मैं आपको दिल से बधाई देता हूँ. जैसा कि मैंने पूर्व में भी ज़िक्र किया था, लघुकथा क्योंकि बहुत ही कम शब्दों में कही जाती है अत: इसका शीर्षक भी ऐसा होना चाहिए जोकि कहानी की आत्मा के साथ इन्साफ करता हो, आपकी इस लघुकथा का इस से बेहतर शीर्षक शायद  ही कोई ओर हो सकता था. अत: इसके लिए एक्स्ट्रा शाबाशी.    


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 22, 2012 at 8:37am

गणेश जी आपकी लघु कथा अपना मुख्य सार पहुचाने में सक्षम है इंसानों की दोहरी वैचारिक मानसिकता दोहरी पद्दति दोहरे व्यक्तित्व की ओर इंगित करती है जो सामयिक है जीवन के अनुभव में  बहुत से एसे लोगों से रूबरू होना पड़ता है ओर लघु कथा की यही विशेषता है जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाए सोचने के लिए .बधाई स्वीकारें 

Comment by वीनस केसरी on March 22, 2012 at 12:19am

सौरभ जी मैंने 
"मंटो की लघुकथाएं" 

"मंटो लंबी कहानियाँ"

"मंटो की बदनाम कहानियां" 
"मंटो की श्रेष्ठ कहानियाँ"
और
"मंटो: मेरा दुश्मन " (उपेन्द्र नाथ अश्क जी द्वारा मंटो की मृत्यु के बाद लिखा गई लाजवाब किताब)

पढ़ हैं और लाखों करोणों लोगों की तरह मैं भी मंटो का फैन कूलर एग्जास्ट आदि हूँ :)))) 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 22, 2012 at 12:10am

वीनसजी, मंटो तो बस मंटो हैं. .. सआदत हसन मंटो.

उनकी ’हलाल और झटका’ मिले तो ज़रूर पढियेगा.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 21, 2012 at 11:45pm

भाई प्रवीन जी, मैं किसी की टिप्पणी को अन्यथा नहीं लेता , वस्तुतः वह लोजिकल हो, अन्यथा आपकी टिप्पणी भी प्रायोजित और इस लघु कथा के शीर्षक के मानिद प्रतीत होती है |

बहरहाल आपकी टिप्पणी पर आभार |

Comment by वीनस केसरी on March 21, 2012 at 11:42pm

मैं तो वापस आया था कि मुझे मंटो की एक लघु कथा मिल गई तो सोचा आप लोग को पढ़वाता चलूँ मगर यहाँ बात दूसरी हो गई है

मित्र ANAND PRAVIN जी, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यहाँ उम्र में छोटे बड़े का कोंई भेद नहीं है
उदाहरण के तौर पर आप मुझे भी देख सकते हैं
रही बात....
तो मुझे लगता है कि हर टिप्पणी वह चाहे प्रशंसात्मक हो या सुझाव या प्रश्नात्मक सभी लघु आलोचना ही होती है

खैर आप सभी मंटो की लघु कथा पढ़िए 

दो दोस्तों ने दस बीस लड़कियों में से एक चुनी और 42 रुपये देकर उसे खरीद लिया। रात गुज़ारकर एक दोस्त ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भन्ना गया, “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो।”
लड़की ने जवाब दिया, “उसने झूठ बोला था।”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा ,“उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है । हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी । चलो वापस कर आएँ।”


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 21, 2012 at 11:32pm

वीनसजी,  अनुज आनन्द से इसी अध्ययन की बात कह रहा था मैं.  यह जानना चाहिये कि अध्ययन रचनाकर्म की समानान्तर प्रक्रिया है. लघुकथाओं का तो भरा-पूरा समृद्ध साहित्य है. 

आनेवाले दिनों में अनुज आनन्द भी समरस होते जायेंगे, यह मेरा विश्वास है.

धन्यवाद.

Comment by वीनस केसरी on March 21, 2012 at 11:28pm

......हाँ ये अतिलघु की श्रेणी में अवश्य आता है......

ANAND PRAVIN जी आपका कमेन्ट पढ़ने के बाद अचानक मन में एक सवाल आ गया तो पूछ ही लेता हूँ 
 
क्या आपने मंटो की लघु कथाएं पढ़ी हैं ?

अगर आपका जवाब "नहीं" है तो मेरा निवेदन है कि "पढ़िए"

और मंटो कि उस "लघु कथा" को जरूर पढियेगा जो उन्होंने मात्र "१७" शब्दों में लिखी है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 21, 2012 at 11:02pm

आनन्द जी, भाई गणेशजी से इस तरह कुछ कहने के पूर्व आपसे तनिक अध्ययन की अपेक्षा है.. फिर देखिये कितना मजा आता है. एकदम से कुछ कहना कभी-कभी उचित नहीं होता.

शुभेच्छाएँ

Comment by Dr. Shashibhushan on March 21, 2012 at 9:41pm

आदरणीय बागी जी,
सादर !
"इस कदर बेजान सी, संवेदनायें हो गयी हैं,
मृदुल, स्नेहिल भावनायें, लग रहा है सो गयी हैं !
क्या कहें बागी जी, नीरस सभ्यता की बात है ये,
प्रेम के बदले दिलों में शून्यता सी बो गयी हैं !""
सार्थक लघु कथा !
हार्दिक बधाई !

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