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तरही मुक्तिका:: कहीं निगाह... संजीव 'सलिल'

आत्मीय!
यह मुक्तिका १०.९.१० को भेजी थी. दी गयी पंक्ति न होने से सम्मिलित नहीं की गयी. संशोधन सहित पुनः प्रेषित.

तरही मुक्तिका::

कहीं निगाह...
संजीव 'सलिल'
*
कदम तले जिन्हें दिल रौंद मुस्कुराना है.
उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है

कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..

न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

पड़े जो काम तो तू बाप गधे को कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..

जुलुम की उनके कोई इन्तेहां नहीं लोगों
मेरी रसोई के आगे रखा पाखाना है..

किसी का कौन कभी हो सका या होता है?
अकेले आये 'सलिल' औ' अकेले जाना है..

चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..

गुलाब दे रहे हम तो न समझो प्यार हुआ.
'सलिल' कली को कभी खार भी चुभाना है..

*******************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम


Acharya Sanjiv Salil

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Comment by sanjiv verma 'salil' on September 17, 2010 at 6:36pm
'सलिल' के पास न आओ कि भीग जाओगे.
नरमदा नेह की निमल, कहो नहाना है?

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 17, 2010 at 6:33pm
हा हा हा हा हा बहुत खूब आचार्य जी,

कुछ सीखने की तमन्ना है दिल मे बागी,
आचार्य के पैरो के पास बैठ पा जाना है ,
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 17, 2010 at 6:23pm
नवीन बागी का प्रताप देख लो यारों.
लड़ा के नैन उन्हें नैन में बसाना है..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 17, 2010 at 4:23pm
वाह आचार्य जी वाह, यही फायदा साहित्यकारों के संगत का है, अलग अलग रंग दिखता रहता है, आपका यह रंग बहुत ही दिलचस्प लगा, बहुत ही सुंदर ग़ज़ल निकाले है सर,
कहीं निगाह सनम और कहीं निशाना है.
हज़ार झूठ सही, प्यार का फसाना है..
आज की परिवेश पर चोट करती शानदार शे'र , और ससुर जी को समर्पित उस शे'र का तो कहना ही क्या है ,बहुत खूब , मैं तो आनंद ले रहा हूँ जम कर , हा हा हा हा ,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 17, 2010 at 8:29am
आचार्य जी सादर प्रणाम
बड़ा दुःख हुआ की आपकी यह ग़ज़ल मुशायरे में स्थान न पा सकी|
यह ग़ज़ल हास्य का पुट लिए हुए बदलते रिश्तों और बदलती मानसिकता पर करारी चोट करती है| और बहुत ही सरल भाषा में अपनी बात कह जाती है|
बहुत सुन्दर|
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 17, 2010 at 7:51am
मिले आशीष तो गिरि को भी समंदर कह दें.
हमें एडमिन से नई मुक्तिका छापना है..

हा... हा... हा...
Comment by आशीष यादव on September 17, 2010 at 2:04am
salil ji saadar pranaam,
aap ki is behad rochak ghazaal ko padh kar mai ati harshit hu. aap ke dwara kahi gayi panktiya mai in par koi comment bhi karu to kaise.
kya khub kaha hai aapne ki,
पड़े जो काम तो तू बाप गधे को कह दे.
न स्वार्थ हो तो गधा बाप को बताना है..
aur
चढ़ाये रहता है चश्मा जो आँख पे दिन भर.
सचाई ये है कि बन्दा वो 'सलिल' काना है..
Comment by Rash Bihari Ravi on September 16, 2010 at 1:06pm
न बाप-माँ की है चिंता, न भाइयों का डर.
करो सलाम ससुर को, वो मालखाना है..

jai ho sir ji
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 16, 2010 at 10:18am
aapkee kadradanee ka shukriya.
Comment by Admin on September 16, 2010 at 10:08am
आदरणीय आचार्य जी,
सादर प्रणाम,
शायद किसी तकनिकी कारण वश आपकी रचना हम तक पहुच ही नहीं सकी थी और अभी पहुची तो मुशायरा-2 बंद हो चूका है, किन्तु यह ग़ज़ल ( तरही मुक्तिका) इतनी खुबसूरत और उम्द्दा कही गई है कि उसे नजरअंदाज करना कम से कम मेरे वश मे तो नहीं ही है, इसलिये इस ग़ज़ल को मुख्य ब्लॉग पर स्थान दिया जा रहा है | इस खुबसूरत ग़ज़ल पर दाद स्वीकार करें |

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