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वो नन्हा सा था,

थे पंख उसके छोटे, छोटी सी थी काया,

नन्ही सी उन आँखों में जैसे पूरा गगन समाया!

सोचती थी कैसे उड़ेगा....

छोटी छोटी प्यारी आँखों में उड़ने का था सपना,

पंख फैला सर्वत्र आकाश को बनाना था अपना,

हर कोशिश के बाद मगर फिसल-फिसल वो जाता!

सोचती थी कैसे उड़ेगा....

इक दिन फिर नन्हे-नन्हे से पर उसके थे खुले,

थी शक्ति क्षीण मगर बुलंद थे होंसले,

पूरी हिम्मत समेट कर घोसले से वो कूदा!

सोचती थी कैसे उड़ेगा....

पंख फैला उन्मुक्त आकाश में दूर कहीं उड़ गया,

पता नहीं कब उसका सपना मेरा अपना बन गया,

देख कर मुझको उन आँखों ने कहा लो मै उड़ा!

सोचती थी कैसे उड़ेगा....

पंख उसके चूम रहे हैं आज स्वछन्द आकाश को,

देता हैं सन्देश यही जीवन में मत निराश हो,

अपनी नियति को समझो, प्रयत्न करो, मत हिम्मत हारो

जैसे उड़ना उसकी नियति थी, और वो उड़ गया!

सोचती थी कैसे उड़ेगा....

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 23, 2011 at 4:27pm

अपनी नियति को समझो, प्रयत्न करो, मत हिम्मत हारो

जैसे उड़ना उसकी नियति थी, और वो उड़ गया!

 

वाह वाह, कविता के अन्दर छुपे निहितार्थ को समझाने का प्रयास बहुत ही खूबसूरती से लेखिका ने किया है और सफल भी है, कोई काम असंभव नहीं है जरुरत प्रयास करने का है |

बहुत बहुत बधाई वसुधा निगम जी,

Comment by Vasudha Nigam on July 23, 2011 at 3:55pm
thank you sir jee... aap bahut hi khoobsurti se kavita ke marm ko samajhte hain bahut aabhaar aapka itne sundar shabdo k liye.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2011 at 3:45pm

और, उसकी रोमिल-पंखी उड़ान में अपने आस-पास परम्पराओं से बन आये अभेद्य-सरीखे पिंजरे को तीली-तीली टूटते महसूस करना.. गोया, उस नन्हें परिंदे ने नहीं हमी ने उस परवाज़ को जीया है. ..!!

वसुधाजी, बहुत खूबसूरती से आपने अपनी रचना में   ’काश..’ को स्वर देने का प्रयास किया है. जिस सलीके से आपने उन्मुक्तता को आवाज़ दी है, उम्मीद जगाता है. प्रयासरत रहें.

शुभकामनाएँ.

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