मैं धरती बोल रही हूँ,
हाँ-हाँ धरती बोल रही हूँ
अपनी व्यथा सुनाने को मैं
मैं कब से डोल रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
मैंने ही तुमको जन्म दिया
मैंने तुम सबको पाला भी
अपने कोख में सींचा तुमको
मैंने ही दिया निवाला भी
पर तुमको मेरी फ़िक्र नहीं
मैं कब से उबल रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
तूमने अपना संसार बसाया
फिर अपना परिवार बढ़ाया
सदा अपने स्वार्थ की ख़ातिर
तूमने मेरा खून बहाया
जितना चाहा दोहा मुझको
मैं सब कुछ झेल रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
खेत बनाए, खलिहान बनाए
जीने के सब सामान बनाए
मतलब से ज्यादा नीर बहाया
नदियों का तूमने वेग घटाया
अपनी सुख-सुविधा के ख़ातिर
विलासिता का अंबार लगाया
तेरी हटधर्मी को जाने कब से
बिन कुछ कहे देख रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
हवा बदली तूमने घटा बदली
प्रकृति की दशा बदली
स्वच्छ नीले आसमान की
प्रदूषण से आभा बदली
सावन बदला, वसंत बदला
गर्मी, सर्दी, हेमंत बदला
अपने घावों का ये दर्द मैं
मन हीं मन सह रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
तुमने छीना हर धन मेरा
तार-तार किया मन मेरा
अपनी हवस के ख़ातिर तुमने
खोखला कर दिया बदन मेरा
खजाना सारा लूट लिया
अब कुछ ना मुझमे छुट गया
अपने मन से मैं तेरे मन को
कब से टटोल रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
ये जीवन चक्र मैंने हीं रचा
मुझमें हीं कुछ ना शेष बचा
पहली बार मैं खुदको
अपने अंदर समेट रही हूँ
बची हुई संपदा को अपने
मैं अब संचित कर रही हूँ
एक बार फिर से मैं अपने जल को
शुद्ध, निर्मल, स्वच्छ कर रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
जैसे तूने बेजुबानों को
बांधा और घसीटा है
खाया कभी, पहना कभी,
कभी खुश होने को पीटा है
बंद कर पिंजरे मे उनको
अपने लोगों से दूर किया
चुपचाप अकेले रहने पर
उनको तूने मजबूर किया
आज उन्हीं की भांति मैं
तुमको पिंजरे मे धकेल रही हूँ
मैं धरती बोल रही हूँ
हाँ-हाँ मैं धरती बोल रही हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
आदरणीय Rachna Bhatia जी,
हौसला बढाने के लिये धन्यवाद।
आदरणीय अमन सिन्हा जी , वाह वाह
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