For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- द्वितीय खंड (3)

गंगा, (ज्ञान गंगा व जल  गंगा) दोनों ही अपने शाश्वत सुन्दरतम मूल  स्वभाव से दूर पर्दुषित  व  व्यथित,  हमारी काव्य कथा  नायक 'ज्ञानी' से संवादरत हैं। 

अब यह सर्वविदित है कि मनुष्य की तमाम विसंगतियों, मुसीबतों, परेशानियों   का कारण उस का ओछा ज्ञान है जिसे वह अपनी तरक्की का प्रयाय मान रहा है. इसी ओछे ज्ञान से मानव को निकालना और सही व ज्ञानोचित अनुभूति का संप्रेष्ण करना अब ज्ञानि का लक्ष्य है. इस के लिये उस ने मानवीय अधिवासों में जा कर प्रवचन देने का मन बना लिया है.

प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....

ज्ञानी का दूसरा प्रवचन (ज़ारी  )

(लड़ी जोड़ने के लिए पिछला ब्लॉग पढ़ें....) 

वनस्पति जगत में


समा गई पूरी ही गंगा


सब अहम्  धुल गया


पर लहजा नरम न हुआ


बोली शिव से-


‘ओफ़  हो, कहां से निकलूं


ओफ़  हो, कहां से जाऊं


अरे भाई रास्ता दो’


शिव मुस्कराये-


‘इतनी जल्दी क्या है गंगे 


अभी कुछ देर विश्राम करो


मेरी जटाओं में 


मेरे पेडों की पत्तियों में शाखाओं  में लताओं में


ये वन उपवन,


ये सहस्रों वन प्राणि,


प्यासे हैं तुम्हारे जल के


वे व्यर्थ तुम्हें न बहने देंगे


कहीं और न जाने देंगे


अब आई हो तो थोडी सेवा सुश्रा कर लो इनकी


बहने का क्या है


कभी भी बह लेना'


गंगा नरम पड गई बोली-


‘ओ शिव ! ओ महा हिमालय!!


तुम तो अति सुंदर हो


यह तुम्हारा ललाट पर्वतों से उंचा


अंबर से मिला हुआ 


वहां सुसज्जित चंद्र तुम्हारी शोभा बढा रहा है


ये तुम्हारे उंचे देवदार के वृक्ष कितने घने हैं


कितने पास पास सटे  हैं


अपनी जिद पर डटे हैं


मुझे  रास्ता दो भाई


मेरा वचन है- जब मैं बह निकली


तो तुम्हारे सौंदर्य को कम न होने दूंगी


तुम्हारे पगों से बहती रहूंगी


स्वयं को उच्चतम न होने दूंगी


तुम अपने रौद्र से संपूर्ण जगत में महा ऊर्जा भर देते हो 


मेरी ऊर्जा पर क्यों बंधन डाल रहे हो


मेरा चंचल स्वभाव है तुम जानते हो 


स्वयं में क्यों संभाल रहे हो


शिव और जोर से मुस्काये-


‘क्यों तड़प रही हो गंगे

 
तुम तो स्वयं बिखरी पड़ी हो


तुम्हें तो स्वयं को समेटना भी नहीं आता


बिखरी ऊर्जा से तुम महा ऊर्जा की बात करती हो


रास्ता मिल जायेगा तुम्हें 


नीचे जाने का क्या है,


किसी भी देव तरू की झुकी शाखा को पकडो और बह निकलो


निमन से निमनतर होना आसान


उच्च से उच्चतर होना अति कठिन’


‘परिहास करते हो शिव’,


गंगा रूष्ट हुई,


‘अं हूं तुम्हारा


तुम्हारी ही तरह मेरे लिये निमन क्या उच्चतम क्या


इन देव तरूयों नें खींचा है मुझे पाताल से


इन्होंने ही छोडा है मुझे आकाश में


उस उच्चतम आवस्था में भी मुझे विश्राम नहीं


तुम्हारे ये तरू खींच लायेंगे मुझे


फिर बरसूंगी बरखा बन कर


फिर बहूंगी गंगा बन कर


पहाडों में मैदानों में’


शिव हंसने लगे- 


‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना 


शिव का भारी स्वर:

(शेष बाकी)

Views: 472

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 7:58pm

समझ गया। लेकिन रचना की निरंतरता में शिव हँसने  के बाद तत्काल गंभीर हो जाते हैं। और वह गंभीर दृश्य अगली कड़ी में है। आप का इंगित करना उचित है। धन्यवाद। सौरभ पांडेय जी आगे से ख्याल रहेगा।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 7:29pm

शिव हंसने लगे- 


‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना 


शिव का भारी स्वर:

(शेष बाकी)

मेरा आशय उपरोक्त अंत से है.. .

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 6:59pm

धन्यवाद सौरभ पांडेय जी, आप के विचारों व मार्गदर्शन का सम्मान करता हूँ। मैं  सोच सकता हूँ और शायद नहीं भी  कि क्यों ऐसा  लिखा आप ने।  व्यथा के पूर्व कारणों व आगामी  प्रभावों को ढूँढना और बयान करना भी अपना कर्तव्य  मानता हूँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 6:30pm

प्रतीकों पर सध रहा गल्प रोचक है.. .

व्यथा-कथा के धारावाहिक का अंत यों न करें.. .

शुभेच्छाएँ

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 30, 2013 at 10:17am

धन्यवाद केवल प्रसाद जी 

कुछ अन्वश्यक कारणों से देर हो गई 
आप की समालोचक टिपणी का धन्यवाद 
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 27, 2013 at 9:35am

आदरणीय, डा0 स्वर्ण जे0 ओंकार  जी,  गंगा-शिव संवाद सुन्दर भाव,  आपको हार्दिक बधाई!  आपको सपरिवार प्रेम-सद्भावना के प्रतीक होली के पावन त्योहार पर बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 26, 2013 at 10:30pm

धन्यवाद मोहन जी 

आप को रचना पसंद आई 
आप का शुक्रिया 
सत्य कहते हैं आप। इस रचना को बयाँ करना मेरा कोई धार्मिक पर्योजन नहीं है।
गंगा हमारी राष्ट्रय धरोहर है। लेकिन हमारे स्वार्थ पूरण कृत्यों के कारण बर्बाद हो रही है। मैं मनाता हूँ कि इस का एक कारन हमारे धार्मिक अनुष्ठान भी है। धर्म के नाम पर हम इस में क्या क्या प्रवाह कर रहे हैं।
मेरा निवेदन है इस कथा को धार्मिक दृष्टि से न पढ़ा जाए।
Comment by मोहन बेगोवाल on March 26, 2013 at 9:42pm

डाक्टर साहिब जी,

इस लड़ी को आगे बढ़ाने के लिए धन्यवाद ,इन प्रवचनों में स्वछता और स्पष्टता के दर्शन होते है, बिना किसी स्वार्थ को साधे  

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। बोलचाल में दोनों चलते हैं: खिलवाना, खिलाना/खेलाना।…"
3 hours ago
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आपका आभार उस्मानी जी। तू सब  के बदले  तुम सब  होना चाहिए।शेष ठीक है। पंच की उक्ति…"
3 hours ago
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"रचना भावपूर्ण है,पर पात्राधिक्य से कथ्य बोझिल हुआ लगता है।कसावट और बारीक बनावट वांछित है। भाषा…"
3 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदरणीय शेख उस्मानी साहिब जी प्रयास पर  आपकी  अमूल्य प्रतिक्रिया ने उसे समृद्ध किया ।…"
4 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदाब। इस बहुत ही दिलचस्प और गंभीर भी रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब।  ऐसे…"
4 hours ago
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"जेठांश "क्या?" "नहीं समझा?" "नहीं तो।" "तो सुन।तू छोटा है,मैं…"
6 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक स्वागत आदरणीय सुशील सरना साहिब। बढ़िया विषय और कथानक बढ़िया कथ्य लिए। हार्दिक बधाई। अंतिम…"
9 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"माँ ...... "पापा"। "हाँ बेटे, राहुल "। "पापा, कोर्ट का टाईम हो रहा है ।…"
12 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"वादी और वादियॉं (लघुकथा) : आज फ़िर देशवासी अपने बापू जी को भिन्न-भिन्न आयोजनों में याद कर रहे थे।…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"स्वागतम "
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on नाथ सोनांचली's blog post कविता (गीत) : नाथ सोनांचली
"आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन। अच्छा गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।"ओबीओ…See More
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service