For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 27, 28

कल से आगे ...........

27

मंगला के वेद भइया आ गये थे।

उनके आते ही मंगला जुगत में लग गई कि कैसे अपना सवाल उनके सामने रखा जाये। उन्हें तो भीतर अंतःपुर में आने का अवकाश ही नहीं मिलता था। भाइयों से करने को अनेक बातें थीं, मित्रों से मिलना था, उनके साथ कभी न समाप्त होने वाले असंख्य संस्मरण साझा करने थे और भी जाने क्या-क्या था करने को। बस इसी सब में लगे रहते थे। उन्हें शायद स्वप्न में ही स्मरण नहीं आता था कि भीतर उनकी दुलारी बहन कितनी उत्कंठा से उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वह भाभी से बार-बार पूछती थी कि कब आयेंगे वेद भइया भीतर ? जाने क्या कर रहे हैं, इतने दिनों बाद तो आये हैं और अब भी मिलने का अवकाश नहीं।


सायंकाल वेद भइया को अवकाश मिल ही गया। भाभी के कमरे में भाभी वेद और मंगला तीनो जुड़े थे। भाभी ने उसे कोहनी मारी -

‘‘अब बोलती क्यों नहीं ?’’

‘‘क्या बात है ?’’ वेद ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं ! इसे कुछ पूछना था। जब से आप आये हो लाला, ये मेरी दम चाटे है कि कहाँ हैं वेद भइया, भीतर आते क्यों नहीं, क्या कर रहे हैं ?’’ भाभी ने घूंघट की ओट से मुस्कुराते हुये कहा।
‘‘तो पूछती क्यों नहीं ? क्यों री क्या बात है ? और तुझे इतनी लाज कबसे आने लगी ?’’ वेद ने मंगला की चोटी हिलाते हुये कहा।
मंगला बेचारी ! जैसे सारी हिम्मत जवाब दे गयी हो। इतने दिन से सोच कर रखा था कि कैसे कहेगी भाई से, अगर नहीं मानेंगे तो कैसे जिरह करेगी किंतु सामने पड़ते ही जबान जैसे तालू से चिपक कर रह गयी थी।
‘‘आह !! चोटी छोड़ो अच्छा, लगती है। जाओ नहीं पूछना मुझे कुछ।’’ बेचारी को पूछना था कुछ और मुँह से निकल कुछ गया।
‘‘अब पूछती क्यों नहीं नखरे दिखा रही है ?’’ वेद ने चोटी को एक और झटका दिया।
‘‘पहले चोटी छोड़ो। जब देखो मारते रहते हो या चोटी खींचते रहते हो।’’
‘‘छोड़ दो लाला ! अब बड़े हो गये हो और ये भी बड़ी हो गयी है।’’ भाभी ने बीच-बचाव करना चाहा।
‘‘सो कुछ नहीं भाभी ! अब तो चोटी तभी छूटेगी जब यह प्रश्न पूछ लेगी। पूछ ?’’
‘‘भइया ! मुझे भी गुरुकुल जाना है।’’ सारी हिम्मत जुटाकर, आँखों में आँसू भरे, आखिरकार मंगला ने कह ही दिया।

तीन साल पहले वाली मंगला को आगा-पीछा सोचने की जरूरत नहीं थी पर इन वर्षों में वह वाकई बच्ची से बड़ी हो गयी थी। अब वह पिता और भाइयों से पहले जैसे बिंदास अंदाज में बात नहीं कर पाती थी। पता नहीं क्यों उसे इनसे संकोच लगने लगा था। क्या बात थी यह उसे भी समझ नहीं आता था।


‘‘क्या ??’’ वेद ने अचंभे से कहा फिर हँसने लगा - ‘‘अरे घर के काम क्यों नहीं सीखती ? वही ससुराल में काम आयेंगे। वेद पढ़ेगी। वेद कहीं लड़कियाँ पढ़ती हैं।’’ वेद ने चोटी छोड़ कर उसे चिढ़ाते हुये सिर पर एक चपत रख दी।
‘‘क्या भइया ? मजाक करने लगे आप भी।’’ मंगला वेद के कटाक्ष से खिसिया गयी। ‘‘आप भी पिताजी की ही तरह हो। वे भी मेरे पढ़ने का नाम लेते ही चिढ़ाने लगते हैं और आप भी वही करने लगे।’’ साल दो साल पहले की बात होती तो वह उन पर चढ़ दौड़ी होती या अम्मा के पास उनकी शिकायत लेकर दौड़ गयी होती पर अब ऐसा नहीं कर सकती।
‘‘अरे चिढ़ा नहीं रहा हूँ, सच कह रहा हूँ ! सच में हमारे यहाँ लड़कियों के गुरुकुल जाने की परम्परा नहीं है। मेरे साथ गुरुकुल में कोई भी लड़की नहीं है।’’
‘‘नहीं है सो तो मुझे भी मालूम है, लेकिन क्यों नहीं है ?’’
‘‘अब नहीं है इतना मुझे पता है। क्यों नहीं ये मुझे भी नहीं पता। पर गुरुजी ने एक दिन कहा था कि महिलाओं को वेद पढ़ना शास्त्रों में निषिद्ध है।’’
‘‘पर किस शास्त्र में लिखा है ऐसा ?’’ अब तक जो भय या हिचक मंगला की जुबान जकड़े हुये था, वह निकल गया था, वह वही पुरानी मंगला हो गयी थी।
‘‘अब मुझे नहीं पता। अब कान मत खा जाकर अपना काम कर।’’ मंगला की लगातार जिद से वेद भी झुंझलाने लगा था।
‘‘आपने तो वेद पढ़े हैं। उनमें मना किया गया होता तब तो आपको पता होता।’’
‘‘वेदों में ऐसा कुछ नहीं है। अब जा अच्छा। पिंड छोड़ इस बात का कोई और बात करनी हो तो कर वरना भाग।’’
‘‘सो कुछ नहीं ! अब मुझे साफ-साफ बताओ किस शास्त्र में लिखा है ?’’
‘‘कह तो दिया मुझ नहीं पता।’’
‘‘तो पढ़ा क्या है आपने गुरुकुल में इतने दिन तक, जरा सी बात नहीं पता ?’’
‘‘घास खोदी है ! बस प्रसन्न ! अब भागती है यहाँ से या नहीं, या एक और धरूँ कसके ?’’
‘‘अरे ! अरे ! वेद लाला ! ऐसे क्यों बोलते हो ? बेचारी छोटी बहन है, छोटों पर कहीं गुस्सा होते हैं !’’ इस बार भाभी ने मंगला का पक्ष लिया।
‘‘अब भाभी ये तो बात पकड़ कर रह गयी। अब शास्त्रों में मना है तो मैं बताओ क्या करूँ ? मैंने तो लिखे नहीं शास्त्र जो बदल दूँ।’’
‘‘अब यह थोड़े ही कह रहा है कोई।’’
‘‘और क्या कह रही है यह ? एक ही रट लगाये है - किस शास्त्र में लिखा है ? मैं कहाँ से बता दूँ, मैंने क्या सारे शास्त्र पढ़ लिये हैं। जब पढ़ लूँगा तब बता दूँगा।’’
‘‘ अच्छा एक बात कहूँ, करियेगा ?’’
‘‘बोलिये आप भी !’’
‘‘इस बार जब गुरुकुल जाइयेगा तो वहाँ गुरु जी से पूछियेगा कि किस शास्त्र में लिखा है ऐसा ? इतना तो कर देंगे ? या इसमें भी कोई समस्या है ?’’
‘‘चलिये पूछ लूँगा और आप लोगों को बता भी दूँगा। अच्छा एक बात तो बताइये जरा क्या आपको भी इसकी तरह सनक लग गयी है ?’’
‘‘अरे नहीं भइया ! घर के और काम कम हैं क्या मेरे लिये जो यह एक बवाल और पालूँगी। मैं तो ऐसी ही भली।’’ भाभी ने हँसते हुये कहा। उसका सच में पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता नहीं था।
‘‘तो पक्का पूछेंगे भइया !’’ मंगला ने एक बार फिर हिम्मत करते हुये कहा।
‘‘हाँ ! हाँ ! मेरी अम्मा ! पूछ लूँगा। अब प्रसन्न ?’’
मंगला ने सिर हिला दिया।
‘‘अच्छा जा मेरे लिये पानी लेकर तो आ।’’ वेद ने कहा और मंगला प्रसन्न-मन उठकर पानी लेने चली गयी।


28

लंकेश्वर रावण अत्यंत प्रसन्न था। उसे सुन्दर-सलोने पुत्र की प्राप्ति हुई थी। पुत्र ने पैदा होते ही इतनी जोर का रुदन किया था कि लगा जैसे बादल गरज उठे हों। जब नामकरण का समय आया तो मंदोदरी ने सलज्ज मुस्कान के साथ सुझाया कि क्यों न इसका नाम मेघनाद रखा जाये। और शिशु का नाम मेघनाद ही रख दिया गया।


रावण का मन अहोरात्र अपने पुत्र में ही रखा रहता था। उसके पग अनायास मंदोदरी के कक्ष की ओर बढ़ चले।

कक्ष में पहुँचा तो देखा वहाँ वज्रज्वाला और सरमा भी उपस्थित हैं। उसे देख कर दोनों संकोच से उठ खड़ी हुयीं और प्रणाम किया। अवगुण्ठन का तो लंका में प्रश्न ही नहीं था किंतु दोनों के चेहरे पर सहज सम्मान-जनित स्त्री-सुलभ संकोच फैल गया था। रूपवान होते हुये भी कितनी संस्कारवान हैं दोनों, रावण ने सोचा।


वज्रज्वाला दैत्यराज विरोचन की पुत्री थी, और सरमा गंधर्वराज शैलूष की पुत्री थी। रावण के विवाह के बाद कुंभकर्ण और विभीषण के लिये भी अनेक प्रस्ताव आये थे किंतु सहमति नहीं बन पा रही थी कि एक दिन प्रहस्त ने इन दोनों प्रस्तावों के आने का उल्लेख किया। ये प्रस्ताव सभी को पसंद आये, खास तौर से मन्दोदरी को। फिर विलंब का कोई कारण नहीं था। शीघ्र ही शुभ मुहूर्त में कुंभकर्ण का वज्रज्वाला से और विभीषण का सरमा से विवाह हो गया था।

मंदोदरी शिशु को लिये पर्यंक पर बैठी थी, रावण उधर ही बढ़ा कि वज्रज्वाला बोली -
‘‘अच्छा जीजी हम लोग चलती हैं। कोई भी आवश्यकता हो तो बुलवा लीजियेगा।’’
‘‘चलती कहाँ हो बैठो। लंकेश्वर क्या तुम्हें खा जायेंगे ?’’ मन्दोदरी ने परिहास किया।
‘‘तुम लोगों ने ये आर्यों वाले संस्कार कहाँ से सीख लिये ? दानवों और गंधर्वों में तो ज्येष्ठ से छिपने की प्रथा है नहीं और रावण भी अनर्गल आर्य संस्कारों को प्रश्रय नहीं देता।’’
दोनों पर्यंक की दूसरी ओर पीठिकायें खींच कर बैठ गयीं।
‘‘ज्येष्ठ यह आर्य संस्कार नहीं है। आपको दीदी के साथ एकान्त समय मिल ही कितना पाता है ? फिर इन कुछ पलों में भी हम व्यवधान बन कर बैठ जायें यह तो मर्यादा के विपरीत है।’’ वज्रज्वाला ने सलज्ज स्मित के साथ कहा।
‘‘सत्य कहा तुमने किंतु महारानी की वास्तविक सखी तो तुम लोग ही हो अतः बैठ जाओ।’’ फिर वह शिशु की ओर आकर्षित हुआ।
‘‘कितना प्यारा मुखड़ा है, नहीं ?’’ रावण ने शिशु के ललाट पर चुम्बन अंकित करते हुये कहा।
‘‘माँ का मुखड़ा कम प्यारा है ज्येष्ठ ?’’ वज्रज्वाला हठात् बोल पड़ी।
‘‘अभी भागी जा रही थी, अब देख कैसे बेशर्मी से बोल रही है !’’ मंदोदरी ने वज्रज्वाला के कथन पर मन ही मन आनंदित होते हुये चोट की।
‘‘तो मैंने क्या झूठ कहा जीजी, क्यों सरमा ?’’ वज्रज्वाला ने पुनः सलज्ज मुस्कान से कहा।
कक्ष सबके सम्मिलित मंद हास्य से रससिक्त हो उठा।
तभी विघ्न आ गया। एक दासी ने द्वार पर दस्तक दी - ‘‘महाराज की जय हो ! महारानियों की जय हो !’’
रावण ने उसे इशारे से भीतर आने को कहा। वह आकर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी।
‘‘कहो क्या बात है ?’’ रावण ने पूछा।
‘‘महाराज ! मातामह सुमाली भेंट करना चाहते हैं। सभा कक्ष में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’
‘‘कुछ काल प्रतीक्षा करें, हम अभी आते हैं !’’
दासी चली गयी।
‘‘इस समय क्या काम आ गया जो मातामह याद कर रहे हैं। रावण को पुत्र से बात भी नहीं करने देते सब लोग।’’
रावण के कथन पर फिर सब मुस्कुरा उठे।
रावण ने पुत्र के भाल पर पुनः एक बार चुम्बन अंकित किया, नाक की नोक पर उँगली से गुदगुदाया फिर मंदोदरी की हथेली पकड़ कर दबाते हुये बोला -
‘‘अच्छा चलता हूँ महारानी ! मातामह के आदेश की उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती।’’
हाँ वह तो नहीं की जा सकती महाराज।’’ मंदोदरी ने कुछ उदास मुख से कहा।
फिर वह वज्रज्वाला और सरमा की ओर दृष्टिपात करता हुआ बोला ‘‘लो ! यदि तुम लोग चली जातीं तो महारानी तो अकेली रह जातीं !’’
दोनों बस मुस्कुरा दीं, कुछ बोलने की आवश्यकता भी नहीं थी।
‘‘क्या ही अच्छा होता यदि रावण भी अपने पिता और पितामह के समान ही सन्यासी बन गया होता। इस शासन-प्रशासन की व्याधि से तो मुक्त रहता।’’ रावण उठकर अपना अंगवस्त्र सम्हालता हुआ बोला। उसकी बात सुनकर मंदोदरी इस उदास अवस्था में भी बरबस मुस्कुरा उठी।

क्रमशः

मौलिक तथा अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 667

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Sulabh Agnihotri on July 31, 2016 at 12:22pm

आभार आदरणीया pratibha pande Ji !

Comment by pratibha pande on July 24, 2016 at 7:34pm

//तुम लोगों ने ये आर्यों वाले संस्कार कहाँ से सीख लिये ? दानवों और गंधर्वों में तो ज्येष्ठ से छिपने की प्रथा है नहीं और रावण भी अनर्गल आर्य संस्कारों को प्रश्रय नहीं देता।’’//   बहुत दिलचस्प संवाद है ..  ये कथा बहुत रोचक होती जा रही है  आदरणीय   

‘‘

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। स्नेह के लिए आभार।"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।"
4 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरनीय लक्ष्मण भाई  , रिश्तों पर सार्थक दोहों की रचना के लिए बधाई "
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  भाई  , विरह पर रचे आपके दोहे अच्छे  लगे ,  रचना  के लिए आपको…"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई चेतन जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद।  मतले के उला के बारे में…"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए आभार।"
8 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  सरना साहब,  दोहा छंद में अच्छा विरह वर्णन किया, आपने, किन्तु  कुछ …"
12 hours ago
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ.आ आ. भाई लक्ष्मण धामी मुसाफिर.आपकी ग़ज़ल के मतला का ऊला, बेबह्र है, देखिएगा !"
12 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई "
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी and Mayank Kumar Dwivedi are now friends
Monday
Mayank Kumar Dwivedi left a comment for Mayank Kumar Dwivedi
"Ok"
Sunday
Sushil Sarna commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रिश्तों पर आधारित आपकी दोहावली बहुत सुंदर और सार्थक बन पड़ी है ।हार्दिक बधाई…"
Apr 1

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service