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ग़ज़ल : रूबरू अब सलाम होता है… "राज"

वजन : 2122 1212 22

वक़्त किसका गुलाम होता है 

कब कहाँ किसके नाम होता है 

 

कल तलक जिससे था गिला तुमको 

आज किस्सा तमाम होता है 

 

खास है  जो  मुआमला अपना 

घर से निकला तो  आम होता है 

 

आज जग में सिया नहीं मिलती 

औ’ किताबों में राम होता है 

 

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है 

 

अश्क कल दर्द के जो पीते थे 

हाथ में आज जाम होता है  

 

रास्ते तो करीब आ जाएं  

दूर कितना  मुकाम होता है  

 

रंजिशे तुम जहां कहीं पालो    

 मौन  उस पर  विराम  होता है 

 

‘राज’ ख्वाबों  में ही नहीं मिलती 

रूबरू अब सलाम होता है 

*******************************

Views: 1026

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 3, 2013 at 6:02pm

आदरणीय गणेश जी  आपको ग़ज़ल  पसंद आई आपकी सराहना  पाकर ग़ज़ल धन्य हो गई मेरे लेखन को सार्थकता मिली हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 3, 2013 at 5:41pm

आदरणीय योगराज जी आपको ग़ज़ल पसंद आई ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है   इस होंसला आफजाई के लिए तहे दिल से आभार आपका ,हाँ आपका मशविरा सर आँखों पर यदि  हो सके तो ये शब्द रिप्लेस कर दें ---खास है जो मुआमला अपना ज्यादा सही लग रहा है सादर 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 3, 2013 at 5:40pm

एक वाक्य में कहे तो ……………. बस आनंद आ गया !!!

 वाह आदरणीया वाह, रोज ऐसी ग़ज़ल नहीं मिलती, सभी अशआर एक से बढ़कर एक हैं, एक शेर जो एकदम सामयिक  कोट करना चाहूँगा 

… 

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है 

क्या बात , क्या बात , बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर . 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 3, 2013 at 5:38pm

  हरीश उप्रेती जी आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत-बहुत  शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 3, 2013 at 5:37pm

प्रिय प्राची जी   आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत-बहुत  शुक्रिया इस होंसला आफजाई के लिए तहे दिल से आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 3, 2013 at 5:35pm

सुमित नैथानी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत शुक्रिया |


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 3, 2013 at 5:01pm

बढ़िया अशआर कहे हैं आदरणीया राजेश कुमारी जी बधाई स्वीकारें, एक छोटी सी सलाह:

.

//पास है जो मुआमला अपना 

घर से निकला तो आम होता है// मिसरा-ए-ऊला में "पास" को "खास" कर के देखें.

Comment by Harish Upreti "Karan" on July 3, 2013 at 4:09pm

आदरणीय राजेश जी सुन्दर गज़ल .....बधाई.....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 3, 2013 at 3:41pm

आदरणीय राजेश जी 

बहुत अच्छी गज़ल लिखी है.. सारे शेर पसंद आये , 

और ये दो तो खास पसंद आये ..बहुत बहुत बधाई

चिलमनो में मुहब्बतें कल थी 

अब तमाशा ये आम होता है .................हर तरफ तमाशा ही तमाशा है :)))) सही कहा 

रंजिशे तुम जहां कहीं पालो    

मौन  उस पर  विराम  होता है................बिलकुल सहमत हूँ..:)

सादर.

 

Comment by Sumit Naithani on July 3, 2013 at 2:45pm

बहुत ही सुंदर गज़ल .............

अश्क कल दर्द के जो पीते थे 

हाथ में आज जाम होता है  ...सुंदर 

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