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Sushil Sarna's Blog – July 2022 Archive (5)

गीत रीते वादों का. . . . .

गीत रीते वादों का ......

मैं गीत हूँ  रीते  वादों  का , मैं  गीत हूँ  बीती  रातों  का।

जो मीत से कुछ भी कह न सका,वो गीत हूँ मैं बरसातों का ।

          हर मौसम ने उस मौसम  की

          बरसातों  को   दहकाया   है ,

          बीत गया वो मौसम दिल का

          लौट के फिर  कब  आया  है ,

जश्न  मनाता हूँ  मैं  अपनी , भीगी  हुई  मुलाकातों  का ।

जो मीत से कुछ भी कह न सका,वो गीत हूँ मैं बरसातों का ।

            कैसे अपने  स्वप्न  मिटा  दूँ…

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Added by Sushil Sarna on July 27, 2022 at 3:01pm — No Comments

दोहा त्रयी -फूल

दोहा त्रयी : फूल

कागज के ये फूल कब, देते कोई गंध  ।
भौंरों को भाता नहीं, आभासी मकरंद  ।।

इस नकली मकरंद पर, मौन मधुप गुंजार ।
अब कागज के फूल से, गुलशन है गुलज़ार ।।

अब कागज के पुष्प दें, प्रीतम को उपहार ।
मुरझाता नकली नहीं, फूलों का संसार ।।

सुशील सरना / 15-7-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on July 15, 2022 at 3:17pm — No Comments

दोहा मुक्तक : गाँव ....

मुक्तक : गाँव .....

मिट्टी का घर  ढूँढते, भटक  रहे  हैं  पाँव।

कहाँ गई पगडंडियाँ, कहाँ गए वो  गाँव ।

पीपल बूढ़ा हो गया, मौन हुए सब  कूप -

काली सड़कों पर हुई, दुर्लभ ठंडी छाँव ।

                  *******

कच्चे घर  पक्के  हुए, बदल  गया  परिवेश ।

छीन लिया हल बैल का, यंत्रों  ने अब देश ।

बदले- बदले अब लगें , भोर साँझ  के  रंग  -

वर्तमान  में  गाँव  का, बदल  गया  है  पेश ।

(पेश =रूप, आकार )

                     ********

गाँवों…

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Added by Sushil Sarna on July 11, 2022 at 1:00pm — No Comments

बुढ़ापा .....

बुढ़ापा ....

तन पर दस्तक दे रही, जरा काल की शाम ।

काया को भाने लगा, अच्छा  अब  आराम ।1।

बीते कल की आज हम, कहलाते हैं शान ।

शान बुढ़ापे की हुई, अपनों से अंजान ।2।

झुर्री-झुर्री पर लिखा, जीवन का संघर्ष ।

जरा अवस्था देखती ,मुड़ कर बीते वर्ष ।3।

देख बुढ़ापा हो गया, चिन्तित क्यों इंसान ।

शायद उसको हो गया, अन्तिम पल का भान ।4।

काया में कम्पन बढी , दृष्टि हुई मजबूर ।

अपनों से अपने हुए, जरा काल में दूर…

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Added by Sushil Sarna on July 6, 2022 at 12:30pm — 4 Comments

दोहा मुक्तक .....

दोहा  मुक्तक ........

कड़- कड़ कड़के दामिनी, घन बरसे घनघोर ।

   उत्पातों  के  दौर  में, साँस का  मचाए  शोर  ।

        रात   बढ़ी  बढ़ते   गए,  आलिंगन   के   बंध -

           पागल दिल को भा गया , दिल का प्यारा चोर ।

                       * * * * *

एक दिवानी को हुआ, दीवाने  से  प्यार ।

     पलकों में सजने लगा, सपनों का संसार ।

           गुपचुप-गुपचुप फिर हुए, नैनों में संकेत  -

                चरम पलों में हो  गए, शर्मीले  अभिसार…

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Added by Sushil Sarna on July 4, 2022 at 9:38pm — 2 Comments

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