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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (482)

सभ्य कितना चल गया सबको पता -गजल (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

२१२२/ २१२२/२१२२



द्वार पर वो  नित्य  आकर  बोलता है

किन्तु अपना सच छुपाकर बोलता है।१।

***

दोस्ती का मान जिसने नित घटाया

दुश्मनों को अब क्षमा कर बोलता है।२।

***

हूँ अहिन्सा का पुजारी सबसे बढ़कर

हाथ  में  खन्जर  उठाकर  बोलता है।३।

***

गूँज घन्टी की न आती रास जिसको

वो अजाँ को नित सुनाकर बोलता है।४।

***

दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी तू

पथ  में  काँटे  वो  बिछा कर  बोलता …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2020 at 10:00pm — 5 Comments

पहले जगकर रोज भोर में सूरज ताका करते थे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

पत्थर को भी फूल सरीखा होना अच्छा लगता है

काँधा अपनेपन का हो तो रोना अच्छा लगता है।१।

**

पहले जगकर रोज  भोर  में  सूरज ताका करते थे

अब आँखों को उसी वक्त में सोना अच्छा लगता है।२।

**

छीन लिया है वक्त ने चाहे खेत का जो भी टुकड़ा था

बेटे हलधर के  हम  जिन को  बोना अच्छा लगता है।३।

**

घोर तमस के बीच भी जो  तब चौपालों में रहते थे

उनको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 26, 2020 at 12:31pm — 9 Comments

शौक से लूटे जिसे भी लूटना है - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/ २१२२/ २१२२

आप कहते  आपदा  में योजना है

सत्य में हर भ्रष्ट को यह साधना है।१।

**

बाढ़ सूखा ऐपिडेमिक या हों दंगे

चील गिद्धों के लिए सद्कामना है।२।

**

घोषणाएँ हो  रही  हैं नित्य जो भी

वह गरीबों के लिए बस व्यंजना है।३।

**

बँट रहा है ढब  खजाना  सत्य है यह

किंतु किसको मिल रहा ये जाँचना है।४।

**

हो गई है हर जिले में अब व्यवस्था

शौक  से  लूटे  जिसे  भी लूटना …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 21, 2020 at 7:00am — 4 Comments

जो कारवाँ भरी थी राहें कहाँ गयीं अब (गजल) -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२२/२२१/ २१२२

**

लोरी  सुना  सुलाती  रातें  कहाँ  गयीं अब

बचपन में चहचहाती सुब्हें कहाँ गयीं अब।१।

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दिनभर का खेलना वो हर भूख भूलकर नित

मस्ती भरी  गजब  की  शामें  कहाँ  गयीं अब।२।

**

हर छलकपट से बंचित लड़ना झगड़ना लेकिन

मन से निकलती  सच्ची  बातें  कहाँ  गयीं अब।३।

**

जिनपर थी झुर्रियाँ ढब हरपल थी कँपकपाती

रखती थी  किन्तु  थामे  बाहें  कहाँ गयीं अब।४।

**

वो होंट खिल-खिलाते मुरझा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 19, 2020 at 6:52am — 4 Comments

कोरोनामय दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

कोरोनामय जग हुआ, फीका पड़ा बसन्त

माँगे खुद की खैर अब, राजा, रंक, महन्त।१।

**

जन्मा चाहे चीन में, लाये अपने लोग

जिससे सारे देश में, फैल रहा यह रोग।२।

**

विकट घड़ी में आपदा, आयी सबके द्वार

घर के बाहर आ मगर, करो नहीं सत्कार।३।

**

घर में बैठो चन्द दिन, ढककर खिड़की द्वार

कोरोना पर  वार  को, यही सफल  हथियार।४।

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आज चिकित्सक का कहा, थोड़ा मानव मान

घर  में  चुपके  बैठ  कर, होगा  रोग  निदान।५।

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करो नमस्ते दूर से , नहीं मिलाओ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2020 at 8:04pm — 2 Comments

किसी आजाद पन्छी को न थी मन्जूर पाबन्दी -गजल

१२२२ /१२२२/ १२२२ /१२२२/

*

कभी कतरों में बँटकर  तो  कभी सारा गिरा कोई

मिला जो माँ का आँचल तो थका हारा गिरा कोई।१।

*

कि होगी कामना  पूरी किसी  की लोग कहते हैं

फलक से आज फिर टूटा हुआ तारा गिरा कोई।२।

*

गमों की मार से लाखों सँभल पाये नहीं  लेकिन

सुना हमने यहाँ  खुशियों  का भी मारा गिरा कोई।३।

*

किसी आजाद पन्छी को न थी मन्जूर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 18, 2020 at 6:17am — 7 Comments

रंगों के घन खूब उड़ायें - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

***

आओ नाचें,  झूमें, गायें  फिर  से अब के होली में

इक-दूजे को खूब लुभायें फिर से अब के होली में।१।

**

देख के जिसको मन ललचाये ज़न्नत के वाशिन्दों का

रंगों के  घन  खूब  उड़ायें  फिर  से  अब के होली में।२।

**

जीवन में  रंगत  हो  सब  के  संदेश  हमें देे होली 

रोते जन को यार हँसायें फिर से अब के  होली में।३।

**

आग सियासत चाहे कितनी यार लगाये नफरत की

प्रेम…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 10, 2020 at 7:30am — 8 Comments

रक्खो भुजंग जैसा चन्दन में आदमी को - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२२/२२१/२१२२

*

फूलों की क्या जरूरत उपवन में आदमी को

भाने  लगे  हैं  काँटे  जीवन  में  आदमी  को।१।

**

क्या क्या मिला हो चाहे मन्थन में आदमी को

विष की तलब रही  पर  जीवन में आदमी को।२।

**

आजाद जब है  रहता उत्पात करता बेढब

लगता है खूब अच्छा बन्धन में आदमी को।३।

**

आता बुढ़ापा जब है रूहों की करता चिन्ता

तन की ही भूख केवल यौवन में आदमी को।४।

**

कितना हरेगा विष ये चाहे पता नहीं पर

रक्खो भुजंग जैसा चन्दन में आदमी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 5, 2020 at 4:21pm — 2 Comments

होली के रंगों से फिर क्यों - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



जो दुनिया से तन्हा लड़कर प्यार बचाया करते हैं

वो ही  सच्चे  अर्थों  में   सन्सार  बचाया  करते हैं।१।

**

उन लोगों से ही तो  कायम  हर शय की ये रंगत है

जो पत्थर दिल दुनिया में जलधार बचाया करते हैं।२।

**

तुम तो अपने सुख की खातिर खून को पानी करते हो

हम राख  की  ढेरी  में  देखो  अंगार  बचाया  करते हैं।३।

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जो कहते हैं हम तो डूबे प्यार के रंगो में…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2020 at 7:30am — 5 Comments

दिल्ली जलती है जलने दे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

**

कब कहता हूँ आम आदमी मुझको अपने पैसे दे

हो सकता है तुझ से  कुछ  तो क़ुर्बानी में रिश्ते दे।१।

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दिल्ली जलती है जलने दे मुझे सियासत करने दे

हर नेता का ये कहना  है  कुछ तो कुर्सी फलने दे।२।

**

ये  लाशों  के  ढेर  हमेशा  सीढ़ी  बन  कर  उभरे  हैं

इनको मत रो इन पर मुझको पद की खातिर चढ़ने दे।३।

**

खूब सुरक्षा मुझे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 28, 2020 at 8:30am — 13 Comments

तरही गजल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122 / 2122 / 2122 /  212

**

उनका वादा राम का  वादा  समझ बैठे थे हम

हर सियासतदान को सच्चा समझ बैठे थे हम।१।

**

कह रहे थे सब  यहाँ  जम्हूरियत है इसलिए

देश में हर फैसला अपना समझ बैठे थे हम।२।

**

गढ़ गये पुरखे हमारे  बीच  मजहब नाम की

क्यों उसी दीवार को रस्ता समझ बैठे थे हम।३।

**

आस्तीनों  में  छिपे  विषधर  लगे  फुफकारने

यूँ जिन्हें जाँ से अधिक प्यारा समझ बैठे थे हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 22, 2020 at 8:28am — 9 Comments

झूठी बातें कह कर दिनभर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



झूठी बातें कह कर दिनभर जब झूठे इठलाते हैं

हम सच के झण्डावरदारी क्यों इतना शर्माते हैं।१।

***

अफवाहों के जंगल यारो सभ्य नगर तक फैल गये

क्या होगा अब विश्वासों  का  सोच सभी घबराते हैं।२।

***

कैसे सूरज चाँद सितारे  अब तक चुनते आये हम

बात उजाले की कर के  जो  नित्य  अँधेरा लाते हैं।३।

***

नित्य हादसे  होते  हैं  या  उन में  साजिश होती है

छोटा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2020 at 11:00am — 8 Comments

रखकर जो नाम राम का -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

**

जो भी वतन में दोस्तो दिखते कलाम हैं

हर वक्त उसकी शान में कहते सलाम हैं।१।

**

दुत्कार उनको हम रहे केवल सुनो यहाँ

जयचन्दी नीयतों में  जो  रहते इमाम हैं।२।

**

उनका भी मान है  नहीं  केवल लताड़ है

रखके जो नाम राम का रावण से काम हैं।३।

**

नेता  सभी  हैं  एक  से  जो  फूट चाहते

समझेंगे क्या कभी इसे जो लोग आम हैं।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 8, 2020 at 4:48am — 8 Comments

राजनीति की धार हमेशा -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



हर शासन अब गद्दारों को यार बहुत हितकारी है

जो करता है बात देश की उसको बस लाचारी है।१।

**

सर्द हवाओं के चंगुल में ठिठुराती आशाएँ बैठी 

सुन्दर सपनों की खेती पर पाला पड़ता भारी है।२।

**

पहले लगता था हम जैसा गम का मारा कोई नहीं

पर जब देखा पाया दुनिया हमसे भी दुखियारी है।३।

**

तुमको भी पत्थर आयेंगे वक्त जरा सा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2020 at 5:30am — 4 Comments

जे पी सरीखे नेता - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२२/२२१/ २१२२

किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन

इनके रहे  वतन  में  जब  नित्य  होनी अनबन।१।

**

किस बात से हैं  सेवक  कहते  पहन के खादी

निर्धन के घर  अगर  ये  डलवा  न पाये राशन।२।

**

अंग्रेज  थे  बुरे  या   चम्बल   के   चोर   डाकू

गर जो हो लूट खाना भर  देश का ही जनधन।३।

**

किस बात की हो चिन्ता  किस बात से परेशाँ

मथकर के दे रही  है  जनता इन्हें तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments

बारूदों की जिस ढेरी पर-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



विकसित होकर  हम ने  कैसी  ये  तस्वीर उकेरी है

आदमयुग थी यार न दुनिया जितनी आज अँधेरी है।१।

**

बारूदों की जिस ढेरी  पर  नफरत आग लिए बैठी

उससे सब कुछ ध्वंस में बोलो लगनी कितनी देरी है।२।

**

जिसको देखो वही चोट को लाठी लेकर डोल रहा

कहने को पर  सब के  मन  में  सुनते  पीर घनेरी है।३।

**

मजहब पन्थों के हित  में  तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2020 at 6:19am — 8 Comments

लिए सुख की चाहतें हम - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

1121       2122         1121     2122

‌मेरे  साथ  चलने  वाले  तुझे  क्या  मिला  सफर में

‌बड़ा चैन था अमन था बड़ा सुख था तुझको घर में।१।

**

‌कहीं दुख भरी ज़मीं  तो  कहीं  गम का आसमाँ है

‌लिए सुख की चाहतें हम अभी लटके हैं अधर में।२।

**

‌जहाँ  देखता हूँ  दिखता  मुझे  सिर्फ  ये  धुआँ है

‌रह फर्क अब गया क्या  भला  गाँव और' नगर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2020 at 8:09am — 6 Comments

मिट्टी की तासीरें जिस को ज्ञात नहीं -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२

‌जो दुनिया को  सबका  ही  घर कहता है

वो क्यों मुझ को  रहने  से  डर कहता है।१।

**

हद से बढ़कर निजता का अभिमान हुआ

अब हर क़तरा खुद को समन्दर कहता है।२।

**

मिट्टी  की  तासीरें  जिस  को  ज्ञात  नहीं

वो  लालच  में  धरती  बन्जर  कहता है।३।

**

ढोंगी  है  या  फिर  कोई  अवतार लखन

‌मालिक बनकर खुद को नौकर कहता है।४।

**

जिसके पास नहीं है दाना वो भी अब

मैं  दाता  हूँ, …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 16, 2020 at 5:17am — 12 Comments

जिसके पुरखे भटकाने की - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



ये मत समझो मान के अपना गले लगाने आया है

जीवन में  खुशियाँ  कैसे  हैं  भेद  चुराने  आया है।१।

**

अनहोनी सी लगती मुझको अब कुछ होने वाली है

नदिया के तट आज समन्दर प्यास बुझाने आया है।२।

**

जिसके पुरखे भटकाने की रोटी खाया करते थे

वो कहता है आज देश को राह दिखाने आया है।३।

**

जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी

उस बस्ती को सूरज  देखो  आज जगाने आया है।४।

**

अपने हिस्से तूफाँ तो थे माझी भी क्या खूब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2020 at 7:28am — 10 Comments

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पर्दा सलीके से बहुत मकसद पे डाल कर

वो लाये सबको देखिए घर से निकाल कर।१।

कितना किया अहित है यूँ अपने ही देश का

लोगों ने उसके नाम  पर  पत्थर उछाल कर।२।

वंशज  उन्हीं  के  कर  रहे  जर्जर  इसे यहाँ

रखना जो कह गये थे ये कश्ती सँभाल कर।३।

कर्तब तेरे  किसी  को  यूँ  आते  समझ  नहीं

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर।४।

कर  ली  है  पाँच   साल  यूँ   नेतागरी  बहुत

बच्चों सरीखा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 4:26pm — 11 Comments

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