रदीफ़- रही
काफ़िया -चलती , ढलती
अर्कान -२१२२,२१२२,२१२२,२१२
दायरों में ही सिमट कर जिंदगी ढलती रही
तुम फलक थे मैं जमीं औ कश्मकश चलती रही।
मायने थे रौशनी के रात भर उनके लिये
लौ दिये की थरथराती ताक में जलती रही।
दे रहा दाता मुझे खुशियाँ हमेशा बेशुमार
फिर कमी किस बात की जाने हमें खलती रही।
ज़िद ज़माने को दिखाने की रही थी बेवजह
जानि - पहिचानी मुसीबत कोख में पलती रही।
हौसला रखकर फ़तह का जंग हम…
ContinueAdded by dr lalit mohan pant on September 3, 2014 at 1:30am — 9 Comments
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