हवस की हवायों के चक्रवात नहीं बदले
न हम बदले, न हमारी विवेकहीन सोच
खूँखार जानवर-से मानव की छाती में
ज़हरीली हवस की घनघोर लपटें
घसीट ले जाती हैं सोई मानवता को बार-बार
मृत्यु से मृत्यु, और फिर एक और
मृत्यु की गोद में
सुविचारित सोच की सरिताएँ हट गईं
डूब गया विवेक अविवेक के काले सागर में
राक्षसी-दानव-मानव ने ओढ़ा नकाब
और स्वार्थ-ग्रस्त ज़हरीले हाथों से किए
मासूम असहाय बच्चियों पर…
ContinueAdded by vijay nikore on June 24, 2019 at 5:26pm — 6 Comments
ठीक है अभी तक अनवरत
तुम मन ही मन मानो निरंतर
देवी के दिव्य-स्वरूप सदृश
अनुदिन मेरी आराधना करते रहे
और अभी भी भोर से निशा तक
देखते हो परिकल्पित रंगों में मुझको
फूलों की खिलखिलाती हँसी में…
ContinueAdded by vijay nikore on June 24, 2019 at 3:28pm — 4 Comments
निर्जन समुद्र तट
रहस्यमय सागर सपाट अपार
उछल-उछलकर मानो कोई भेद खोलती
बार-बार टूट-टूट पड़ती लहरें ...
प्यार के कितने किनारे तोड़
तुम भी तो ऐसे ही स्नेह-सागर में
मुझमें छलक-छलक जाना चाहती थी
कोमल सपने से जगकर आता
हाय, प्यार का वह अजीब अनुभव !
डूबते सूरज की आख़री लकीर
विद्रोही-सी, निर्दोष समय को बहकाती
लिए अपनी उदास कहानी
स्वयँ डूब जा रही है ...
आँसू भरी हँसी लिए ओठों पर
जैसे…
ContinueAdded by vijay nikore on June 17, 2019 at 8:30pm — 4 Comments
ढलते पहर में लम्बाती परछाईयाँ
स्नेह की धूप-तपी राहों से लौट आती
मिलन के आँसुओं से मुखरित
बेचैन असामान्य स्मृतियाँ
ढलता सूरज भी तब
रुक जाता है पल भर
बींध-बींध जाती है ऐसे में सीने में
तुम्हारी दुख-भरी भर्राई आवाज़
कहती थी ...
"इस अंतिम उदास
असाध्य संध्या को
तुम स्वीकारो, मेरे प्यार"
पर मुझसे यह हो न सका
अधटूटे ग़मगीन सपने से जगा
मैं पुरानी सूनी पटरी पर…
ContinueAdded by vijay nikore on June 1, 2019 at 12:00am — 4 Comments
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